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गुरुवाणी-३
धर्म कैसा जीवन में कब परिवर्तन केन्द्र आएगा नहीं कह सकते? डाह्याभाई धोलशाा जैन थे, हर वर्ष पर्युषण पर्व की आराधना करते थे। इस वर्ष भी पर्युषण पर्व आए और उन्होंने विचार किया कि इस पर्व का मुख्य अङ्ग क्षमापना है और यह भगवान् महावीर स्वामी द्वारा बताये गये धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में नहीं है। इतने वर्षों तक मैंने पर्युषण पर्व की आराधना की क्या वह वास्तविक है? अर्तमन ने कहा नहीं, तेरे मन में एक व्यक्ति के प्रति शत्रुभाव रहा हुआ है जब तक तू इस व्यक्ति से क्षमा मांगकर मन को शुद्ध नहीं करेगा तब तक तेरे द्वारा की गई समस्त आराधना निष्फल है। तप-जप या महोत्सव तभी सार्थक बन सकता है जब समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव बन्ध जाए। धोलशा ने मन की पुकार को स्वीकार किया। मन से निश्चय किया कि अब कदड़ा को मिलने के लिए जाना चाहिए। इस समय वास्तविक आराधना ही करनी है। जब तक एक भी प्राणी के प्रति मन में शत्रुभाव रहता है तब तक जीवन को सच्चा धर्म स्पर्श नहीं कर सकता। वे कदड़ा के यहाँ गये वहाँ कवि दलपत राम तो इस महाकवि को स्वयं के घर में बिना आमंत्रण के आते हुए देखकर चौंक पड़े। अरे! यह सत्य है या स्वप्न! मेरा कट्टर दुश्मन मेरे आंगन में! वे सन्मुख गये, पूछा- आज अचानक कैसे पधारे? तब धोलशा ने कहा- भाई! जब युद्ध विराम किया जाता है तब सफेद ध्वजा फहराई जाती है, बराबर है न! देखो, अब तुम्हारे मस्तक पर और मेरे मस्तक पर सफेद ध्वजा फहरा रही है, अर्थात् दोनों के सफेद बाल आ गये है। हम दोनों इस प्रकार कब तक लड़ते रहेंगे? यह समझकर मैं तुमसे क्षमा मांगने आया हूँ। यह सुनते ही कदड़ा प्रेम से मिले। ऐसे आलिंगनबद्ध हुए मानो बचपन के लङ्गोटिया मित्र हो! इस प्रकार धोलशा ने शत्रुता को खत्म कर मन को शुद्ध किया। जीवन में जो यह भावना प्रकट हो जाए तो जीवन की दिशा ही बदल जाती है और तभी वास्तविक अर्थ में अहिंसा का आचरण किया जा सकता है।