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कृतज्ञता
कार्तिक वदि ६
भवचक्र का पूर्णविराम !
ज्ञानी महापुरुष हमारे कल्याण के लिए श्रेष्ठ में श्रेष्ठ उत्तम धर्म को समझा रहे हैं कि मानव जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। इस अवतार में ही भविष्य के समस्त अवतार/जन्म ग्रहण पर पूर्णविराम लगा सकते हैं। खाना पीना और मौज-मस्ती ये तो आनुषंगिक फल है। मुख्यतः धर्म करना ही सच्चा है। धन प्राप्त करना यह सद्भाग्य नहीं, किन्तु धर्म प्राप्त करना यह महासद्भाग्य है। किसी भी वस्तु को ग्रहण करने के लिए मनुष्य निकलता है तो उसकी परीक्षा करने के बाद अच्छी तरह से उस वस्तु को देख लेता है। चाहे सब्जी हो या वस्त्रपात्र या कोई भी वस्तु, तब धर्मरूपी महामूल्यवान वस्तु को लेने के लिए मनुष्य को सर्वप्रथम धर्म की पूर्णत: परीक्षा करनी चाहिए। आज धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के ढोंग करते हैं। हिंसा भी धर्म मानने में आती है। बकरी ईद के दिन लाखों जीवों का कत्ल होता हैं, तो वह उनका सबसे बड़ा 'धर्म है। नवरात्रि के दिनों में क्या माताजी की भक्ति के लिए लोग रात्रि जागरण करते हैं? नाचते हैं, कूदते हैं? नहीं! वास्तव में तो ये दिन भक्ति के स्थान पर धूर्तता के आ गए हैं। नवरात्रि यह युवानों की प्रेमरात्रि बन जाती है। मौज-मस्ती और प्रेमक्रीड़ा के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। किसी ने लिखा है कि 'बाहर गरबा रास और घर में त्रास' इसको धर्म किस प्रकार से माने? शास्त्रकार कहते हैं कि धर्म की पूर्णत: परीक्षा कर जीवन में उतारें । धर्म को भीतर उतारने के लिए भी गुणों की अपेक्षा हैं । उसमें हम उन्नीसवें गुण कृतज्ञता पर विवेचन कर रहे हैं।
कृतज्ञता
धर्मार्थी मनुष्य कृतज्ञ अर्थात् किए हुए उपकार को भूलने वाला नहीं होता है। ऐसा मनुष्य उच्च शिखर पर चढ़ता जाता है जबकि कितने ही