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________________ कृतज्ञता २१३ गुरुवाणी-३ मनुष्य कृतघ्नी अर्थात् किए हुए उपकार को भूल जाने वाले होते हैं। ऐसे मनुष्यों का अधपतन होता है। कृतघ्नी मनुष्य से सामने वाला मनुष्य अत्यन्त ही आर्तध्यान का अनुभव करता है, उसको ऐसा प्रतीत होता है कि इस मनुष्य हो मैं ही ऊँचाई पर लाया और वही आज मेरा सामना कर रहा है। उसके नि:श्वासों की हाय कृतघ्नी मनुष्य के जीवन बाग को जलाकर नष्ट कर देती है। इसीलिए कृतघ्नी मनुष्य नीचे ही नीचे गिरते जाता है। कृतज्ञ मनुष्य सामने वाले का राई जितना उपकार भी पहाड़ के समान मानकर जीवन पर्यन्त भूलता नहीं है। एक श्लोक आता है: "दो पुरिसे धरउ धरा अहवा दोहिं पि धारिया धरणी। उवयारे जस्स मई उवयरियं जो न पम्हुसइ।" हे धरतीमाता! तुम दो पुरुषों को ही धारण करना अथवा दो पुरुषों के कारण ही तुम स्थिर एवं स्थित हो। एक तो वह पुरुष जो उपकार करता है अर्थात् दूसरे का भला चाहता है जो यही उसका व्यसन है, और दूसरा जिसके उपकार को भूलता नहीं प्रत्युपकार करने के लिए सभी समर्थ नहीं होते किन्तु उपकार को तो स्मरण में रखते ही है न! आज दोनों प्रकार के मनुष्य प्राय:कर लुप्त हो गये हैं। प्रथम उपकार माता-पिता का है, इस सृष्टि पर हमको लाने वाले ये ही हैं। बाल्यावस्था से मानव बनाने वाले भी यही हैं किन्तु आज इस तथ्य को कोई स्वीकार नहीं करता। अरे, यहाँ तक दुष्ट मनुष्य ऐसी दुष्टता कर बैठता है कि माता को वह कहता है तुने मुझे दूध पिलाया है न! इसलिए ये ले तेरे दूध के पैसे और यहाँ से निकल जा। इतना ही नहीं धन के लिए माता-पिता की हत्या करने के लिए भी आज की सन्तान तैयार है। मनुष्य जीवन में कदम-कदम पर दूसरों की मदद की आवश्यकता पड़ती है वह एक हाथ से जीवन जी नहीं सकता। चाहे कोई पड़ोसी हो, वैद्य हो, डॉक्टर हो या कोई शिक्षक हो.... सबकि सहायता से ही मनुष्य जीवन बिता सकता है, किन्तु दुःख की बात है
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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