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गुरुवाणी-३
विनय हजारों मनुष्यों को आकर्षित करने में सक्षम हो गये थे। मानों जिह्वा पर सरस्वती ने निवास कर लिया हो। ऐसा करते हुए उनकी ख्याति भारत भूषण पण्डित मदन मोहन मालवीय तक पहुँची। उन्होंने कुम्भ मेले का आयोजन किया था। उस मेले में देशभर के धुरन्धर विद्वानों को आमंत्रित किया था। इस प्रसंग पर धर्मविजयजी महाराज साहब को भी आमंत्रण दिया था। हजारों की जनसमुदाय के समक्ष प्रत्येक पण्डितों को भाषण देने के लिए पाँच-पाँच मिनट का समय निश्चित किया था। धर्मविजयजी महाराज का नम्बर आया। उन्होंने वक्तव्य प्रारम्भ किया। पाँच मिनट पूर्ण होते ही सभामण्डप तालियों के गड़गड़ाहट से गूंज उठी.... साथ ही सभा में से आवाज उठी आगे बोलिये, आगे बोलते जाइये.... वक्तव्य के दूसरे पाँच मिनट और दिए गए। पुनः सभा की और से आवाज आई। आगे बोलते जाइये, बोलते जाइये.... ऐसा करते-करते ४५ मिनट तक उनका वक्तव्य चला। तत्पश्चात् श्रीमालवीयजी ने खड़े होकर कहा महाराज साहेब अब कृपा करिए। इन सब पण्डितों को मैं क्या जवाब दूंगा। वाणी में ऐसी गजब की शक्ति आ गई, कहाँ से? विनय के बल से, मिली हुई गुरु कृपा से ही....
प्रशमरति नामक ग्रन्थ में उमा स्वाति महाराज कहते हैं कि विनय का फल शुश्रूषा है। अर्थात् सुनने की इच्छा और सेवा है। गुरु की सेवा द्वारा ही शास्त्रों के रहस्यों को प्राप्त कर सकते हैं और फिर ज्ञान से विरती आती है.... विरती से संवर.... परम्परा से मोक्ष तक पहुँचा जा सकता है। . विनय यह सर्वगुणों का भाजन है।
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जो कभी भूल न करे, उसे भगवान कहते हैं जो भूल कर भूल जाए, उसे नादान कहते हैं
जो भूल कर मुस्कुराये, उसे शैतान कहते हैं : जो भूल कर कुछ सीख जाए, उसे इन्सान कहते हैं :
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