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________________ २१० विनय गुरुवाणी-३ आता है और किसके समागम से आता है, कह नहीं सकते। सत्संग से जीवन बदल जाता है.... कल का जुआरी रखड़ेल मनुष्य आज का साधु बन गया। उसका नाम धर्मविजयजी महाराज रखने में आया। दीक्षा लेने के पश्चात् ज्ञान चढ़ता नहीं था, किन्तु विनय भाव शिखर पर था। गुरु पर अत्यन्त बहुमान था। पूज्य नेमिसूरिजी महाराज सा. उनके गुरुभाई थे। धर्मविजयजी महाराज को पढ़ाने का काम नेमिसूरिजी महाराज को सौंपा गया। ज्ञान का क्षयोपसम न होने से अत्यन्त परिश्रम करने पर भी एक अक्षर भी चढ़ता नहीं था। कभी-कभी तो गुरु भाई घड़े के डोरे से मारते भी थे.... किन्तु मन से भी वे बुरा नहीं मानते थे। हंसते-हंसते विनय पूर्वक सब कुछ सहन करते थे। रात-दिन गुरु के नाम को ही रटते थे और गुरु महाराज का ध्यान करते थे। बरसो बीत गए। ज्ञान तो अधिक नहीं प्राप्त कर सके किन्तु गुरु सेवा से मन की तृप्ति अवश्य हुई। गुरु महाराज का अन्तिम समय निकट आ रहा था। धर्मविजयजी महाराज उनके सन्थारे के पास बैठे हुए थे। गुरु महाराज अपने अन्य शिष्यों को कहते हैं, कि इस धर्मविजय को पन्यास पदवी देना। गुरु महाराज का स्वर्गवास हो गया। कुछ ही समय में विनय से प्राप्त और गुरुकृपा के बल से हृदय के भीतर की शक्तियाँ खिल उठी। अभ्यास में बढ़ने लगे। माण्डल में छोटी सी पाठशाला प्रारम्भ करवाई। उसमें संस्कृत का पठन प्रारम्भ करवाया और फिर आगे बढ़ते हुए विद्या का केन्द्र ऐसे काशीधाम में पहुंचे। विद्यार्थियों को भी साथ ले गये। प. बेचरदास आदि उनके साथ थे। जैन समाज में ज्ञान को बढ़ाना था। अनेक प्रकार के झंझावात आए। अडिग रहकर अपने कार्य को आगे बढ़ाते गए। लोगों को आकर्षिक करने के लिए वे चौराहे पर खड़े रहकर स्वयं के विद्यार्थियों के सन्मुख व्याख्यान देने लगे। धीमे-धीमे कौतुहल से लोग इकट्ठे होने लगे.... पाँच, पच्चीस करते-करते पाँच सौ मनुष्यों का समुह मार्ग पर खड़ा रहकर उनका व्याख्यान सुनता था.। जिनको अच्छी तरह से बोलना नहीं आता था वे
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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