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________________ २०६ विनय गुरुवाणी-३ उसकी पीठ को थपथपाते हैं। जबकि अविनीत शिष्य बाहर ढूंठ वृक्ष के समान खड़ा है। गुरु महाराज उसे बुलाते है। वह लालचोल होता हुआ आता है। नमन करना तो दूर रहा बल्कि क्रोध में धमधमाता हुआ गुरु महाराज से कहता है - तुमने बहुत पक्षपात किया है, मुझे अच्छी तरह से पढ़ाया नहीं है, समस्त विद्याएं तुमने इसी को दी है। गुरु महाराज ने जैसेतैसे उसके क्रोध को शांत किया और पूछा - क्या घटना है? उसने सब कुछ कह सुनाया। गुरु महाराज भी विस्मय को प्राप्त हुए। उन्होंने विनीत शिष्य को पूछा - भाई! तूने कदमों पर से हाथी नहीं हथिनी है, ऐसा किस आधार से निश्चय किया? उसने कहा - गुरुजी! मार्ग पर हथिनी के मूत्र के निशान थे। हाथी का मूत्र करने का तरीका अलग होता है और हथिनी का अलग होता है। इसी आधार से मैंने निश्चय किया की ये हथिनी के चरण है। उसने बांयी ओर से पत्ते, फल, फूल आदि खाए थे, इस पर से मैंने यह निश्चय किया वह दांयी आँख से कानी होनी चाहिए। आगे जाते हुए उस पर से किसी ने उतर कर बबूल के पीछे जाकर लघुशंका की थी.... पुरुष तो खुले स्थान पर मूत्र कर देता है, किन्तु स्त्री ही किसी की ओट लेकर के करती है। इसीलिए मैंने अनुमान किया की वह स्त्री है। हाथी पर सवारी तो बड़े आदमी ही करते हैं न! इसीलिए राजा और रानी ही होने चाहिए ऐसा मुझे प्रतीत हुआ। मैंने वहाँ जाकर देखा तो बबूल में साड़ी के रेशे लगे हुए थे। वे लाल रङ्ग के थे, इससे मैंने यह अनुमान किया कि वह लाल रंग की साड़ी पहनी हुई होगी। वहाँ मैंने दोनों हथेलियों के चिह्न देखे उससे मुझे यह विश्वास हो गया कि लघुशंका करने के बाद दोनों हाथों को टेककर वह खड़ी हुई होगी और दांये हाथ की हथेली पर अधिक भार डाला था। उससे मुझे यह निश्चय हो गया कि वह अवश्य ही गर्भवती होनी चाहिए और प्रसव की तैयारी है। दांये हाथ पर अधिक भार देने के कारण मैं समझ गया कि उसके लड़का ही होना चाहिए। गुरु महाराज उसकी बुद्धि पर वाह वाह कर उठे। इसके बाद गुरु महाराज ने
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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