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गुरुवाणी-३
विनय आज के युग में विनय धर्म प्रायः कर लुप्त हो गया है। लड़के माँ-बाप की मर्यादा भी नहीं रखते हैं। पिता एक बात कहता है, तो उसे चार बात सुननी पड़ती है। लड़का कितना भी चतुर हो किन्तु वह उद्धत हो तो वह किसी को प्रिय लगता है क्या? किन्तु वह विनीत हो तो कितना प्यारा लगता है। विनय तो एक मोहकता है। भगवान् जैसे भगवान् भी जिसके नीचे बैठकर देशना देते हैं, उस अशोक वृक्ष को देशना से पूर्व तीन प्रदक्षिणा देते हैं और नमो 'तित्थस्स' कहकर बैठते हैं। जहाँ बैठकर जनकल्याण करना है, उसका भी विनय करते हैं।
शास्त्रकार हमें चेतावनी देते हैं कि विनय हो तभी सच्चा साधुत्व आता है। विनय के बिना तो वेश परिवर्तन मात्र है। विणया विप्पमुक्कस्स कओ धम्मो कओ तवो। अर्थात् विनय के बिना धर्म और तप कैसा? विनय तो वह एक की संख्या के समान है जिसके पीछे ज्यों-ज्यों शून्य लगाते जाएंगे त्यो-त्यों उसकी कीमत बढ़ती जाती है, किन्तु ज्यों ही प्रारम्भ के एक को निकाल देंगे तो क्या रहेगा? शून्य.... अनेक शून्य हों तो उसका कोई मूल्य है? साधु जीवन में तो परस्पर बांधने वाली कोई चीज है, तो वह विनय है। विनयी कौन? साधु या राजपुत्र
किसी नगर से कोई आचार्य भगवंत शिष्यवृन्द के साथ विचरण कर रहे थे। उस समय उस नगरी का राजा आचार्य महाराज को नमस्कार करने के लिए वहाँ आता है। कुछ समय बैठता है। सूरिजी के विनयी शिष्यों को देखकर उसे आश्चर्य होता है। वह सूरिजी से पूछता है - भगवन्, आपके ये शिष्य आपका इतना ज्यादा विनय क्यों करते हैं? हमारी सन्तानें तो हमारा विनय करें, यह समझ सकते हैं। क्योंकि उनका पिता का राज्य मिलने वाला है, किन्तु ये शिष्य इतना विनय क्यों करते हैं। इनको आपके पास से क्या मिलने वाला है? विनीत हो तो हमारे राजकुमार हो.... किन्तु आपके शिष्यों में विनय का होना, यह आश्चर्य