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विनय
गुरुवाणी-३ विनयः। गुणों को कोई आकाश में नहीं रख सकते हैं। विनय यह सब गुणों को सुरक्षित रखने का पात्र/स्थान है। हीरा, माणक, मोती आदि आभूषणों को रखने के लिए मंजूषा (बॉक्स) चाहिए ही न! भले ही जवाहरात लाखों रुपयों के हों किन्तु मंजूषा तो पचास से सौ रुपये की ही होती है। किन्तु मंजूषा के बिना आकाश में अधर तो रख नहीं सकते। वैसे ही समस्त गुणों को रखने के लिए पात्र/भाजन चाहिए ही न! समस्त गुणों का रक्षण करने के लिए यदि कोई पात्र है, तो वह विनय ही है। पात्र नहीं होगा तो गुण भी ढुलककर गिर जाएंगे.... यह पात्र खाली होगा तभी तो उसमें रख सकते हैं ! भरे हुए पात्र में वह कैसे समा सकता है.... वैसे ही पहले समपर्ण के द्वारा रिक्त करन पड़ेगा। खाली होने पर ही वह भरा जाएगा। हमारा पात्र अभिमान के द्वारा भरा हुआ है। पहले अभिमान का त्याग करेंगे तभी तो विनय आएगा। हमारी दिमाग रूपी टंकी अहंकार
और वासना से भरी हुई है। इसीलिए ही जीवन में विनय आता नहीं है। विनय से ही ज्ञान मिलता है, उसे ही परिणति ज्ञान कहते हैं। आत्मा के साथ ज्ञान जब ओत-प्रोत हो जाता है, वह भी विनय के द्वारा ही प्राप्त होता है। आज तो पाठशालाओं में विनय को जड़मूल से दूर फेंक दिया गया है। प्रोफेसर अथवा शिक्षक कुछ भी कहने के लिए जाएं तो वह मामला
खून-खराबे तक पहुँच जाता है। अविनय से कदाचित् अक्षर का ज्ञान मिल सकता है, किन्तु वह फलदायक नहीं होता। पिता-पुत्र का संवाद
उपनिषद् में उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद आता है। श्वेतकेतु चौदह विद्याओं में पारङ्गत होकर घर आता है। उसके पिता उद्दालक पूछते हैं- वत्स! क्या पढ़कर आए हो? पुत्र कहता है - पिताजी ! इसमें आपको कुछ भी खबर नहीं पड़ेगी। पिता कहते है - वत्स, तब तो तूने कुछ भी पढ़ा नहीं है। विनय रहित सबकुछ बेकार है। जब तक तू अपनी आत्मा