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________________ गुरुवाणी-३ विनय है और क्लेश अधिक होता है। किन्तु आज का मनुष्य श्रेय को छोड़कर प्रेय के चक्कर में डूबा हुआ है। मनुष्य को गर्व है । यह सबकुछ मैंने अपनी बुद्धि से प्राप्त किया है अथवा चालाकी से प्राप्त किया है, किन्तु यह गर्व ही उसको नीचे गिरा देता है। षड्यन्त्र और प्रपंच करने वाला बहुत चालाक होता है, किन्तु उसकी बुद्धि ही उसको कैद खाने में भिजवा देती है न! दैवी बुद्धि हो तो वह मनुष्य को तिरा देती है और आसुरी बुद्धि हो तो उसे कहीं का नहीं रखती। सच्चा ज्ञान तो धर्म द्वारा ही प्राप्त होता है, किन्तु धर्म कब मिलता है? गुण होगा तब। धर्म की प्राप्ति के लिए पहले सद्गुणों की प्राप्ति । धर्म के योग्य व्यक्ति का १८ वाँ गुण विनय है। विनय विनय यह सब गुणों का मूल है। विनय यह धर्म का भी मूल है। जैसे मूल के बिना वृक्ष नहीं होता वैसे ही विनय के बिना धर्म नहीं हो सकता । शत्रु को भी वश में करना हो तो वह विनय ही है। विनयी मनुष्य सबका प्रिय होता है। अविनीत मनुष्य चाहे जितना भी चतुर हो पर वह किसी को प्रीतिकर नहीं होता। आज तो इस जगत् में से विनय का नामोनिशान भी मिट गया है। माता-पिता और बड़ों आदि का विनय करते ही नहीं हैं। दान लेने के लिए आने वाले का भी विनय करना आवश्यक है। शास्त्रकार कहते हैं कि धर्म का भी विनय करना चाहिए। संसार का, दुर्गति का, दुःखों का और पाप का प्रारम्भ अहंकार से होता है। जबकि धर्म का, कल्याण का, सुख का और नमस्कार का प्रारम्भ विनय से होता है। नम्रता सबको अच्छी लगती है राजा के महल में किसी भिखारी को प्रवेश मिल सकता है क्या? नहीं! हम तो फटेहाल की अपेक्षा भी फटेहाल हैं। इस देवाधिदेव के
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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