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________________ १९० वृद्धानुग गुरुवाणी-३ "अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः॥" दुराचारी से दुराचारी व्यक्ति भी मुझे अनन्य भाव से भजता है तो वह साधु बन जाता है। वैसे ही जगत् के समस्त पदार्थ परिवर्तनशील होते हैं। इसमें नाक और मुँह को क्या सिकोड़ना? राजा को लगा कि मैं तो इस मन्त्री को बहुत बुद्धिशाली समझता था, किन्तु यह तो बहुत मूर्ख लगता है। इतनी दुर्गन्ध आने पर भी इस पर कोई असर नहीं हुआ। राजा ने कहा कि तुम तो वेदिये के वेदिये ही रहे अर्थात् वेद पढ़ने पर भी मूर्ख ही रहे। उस समय तो मन्त्री चुप रहा कुछ बोला नहीं, समय आने पर राजा को शिक्षा दूंगा। ऐसा सोचकर अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। मन्त्री की योजना ___ इस घटना को कुछ समय बीत गया। मन्त्री ने राजा की अक्ल को ठिकाने लाने के लिए उसी गटर के पानी के पाँच-सात घड़े भरवाकर मंगवा लिये। पाँच सात दिन तक वे घड़े वैसे के वैसे ही पड़े रहे। सारा कचरा नीचे बैठ गया फिर ऊपर का पानी दूसरे घड़ो में लिया। इस प्रकार छ: महीने तक उस पानी को एक घड़े से दूसरे घड़े में बदलता रहा। पानी स्फटिक जैसा निर्मल बन गया। फिर उस पानी में सुगन्धित पदार्थ डालकर उस पानी को बहुत ही सुवासित बना दिया। तत्पश्चात् राजा को अपने घर भोजन करने के लिए आमंत्रित करता है। राजा भोजन करने के लिए आता है। उनके लिए अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाए गए थे। राजा खाने के लिए बैठता है। भोज्य सामग्री परोसी जाती है। कुछ खाने के बाद राजा पानी माँगता है। मन्त्री वही सुगन्धित पानी देता है। पानी पीने के साथ ही राजा चौंक उठता है और मन्त्री से पूछता है - हे मन्त्रीश्वर ! यह पानी कहाँ से लाए हो? देवलोक से लाए हो क्या? राजा भोजन को छोड़कर पानी ही पीने लगा। मन्त्री ने कहा - हे राजन् ! यह पा : देवलोक से नहीं आया है। यह पानी तो दुर्गन्ध युक्त गटर का ही
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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