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वृद्धानुग
गुरुवाणी-३ वर्ग की आँखे खुल गई। जो आज यह वृद्ध साथ नहीं होता तो विवाह क्रिया सम्पन्न होने के पहले ही वापिस लौटना पड़ता। इसीलिए यह कहावत पड़ी है कि घरडां गाडां वाळे। अरर....! बुढ्ढा जी गया...!
वृद्ध मनुष्य चाहे जैसे विकट समय में भी अपनी बुद्धि से मार्ग निकाल लेते हैं। आज के युवा वर्ग को वृद्ध लोग फूंटी आँख भी नहीं सुहाते। वृद्धों की करुण कहानी सुनते हैं तो हम भी धूज उठते हैं। कुछ ही दिनों पूर्व एक घटना पढ़ने में आई थी। एक गाँव में एक छोटा सा परिवार रहता था। माँ-बाप वृद्ध थे। माँ तो थोड़ी बीमारी भोगकर परलोक चली गई थी। बाप अकेला पड़ गया था। घर में उसके पुत्र, बहू और पोते मौज-मस्ती के साथ रहते थे, किन्तु पिता को किसी भी भाव नहीं पूछते थे। वे अलग कमरे में अकेले ही मन को मसोस कर बैठे रहते थे। भोजन का समय होने पर बहू आकर भोजन की थाली रख जाती थी। उसे वह रुचिकर है या नहीं फिर भी मन मारकर खाना पड़ता था। वह सोचता है कि पहले तो प्रतिदिन पत्नी सामने बैठकर हवा डालती जाती थी और बातें करती जाती थी। उस खाने में बहुत आनन्द आता था। आज तो क्या चाहिए? ऐसा पूछने के लिए भी कोई नहीं आता। कभी-कभी तो सांझ ढलने तक भी वह ऐसा का ऐसा ही खटिया पर पड़ा रहता । मन में बहुत आकुल-व्याकुल रहता। इस कारण से उसकी बीमारी बढ़ती गई, क्योंकि प्रसन्नता यह मन की खुराक है। यदि प्रसन्नता हो तो चाहे जैसा भयंकर रोग भी उस मनुष्य पर अधिक प्रभाव नहीं डालता, जबकि संताप तो रोग-रहित होने पर भी नये-नये रोगों को पैदा कर देता हैं। अब तो उस वृद्ध के श्वासोंश्वास भी धीमे पड़ने लग गए थे। पुत्र एवं पुत्रवधू आपस में विचार करते हैं कि अब तो यह बुढ्ढा अधिक जीए ऐसा नहीं लगता है। इसलिए वृद्ध के मरने के बाद हम पत्रिका में इसका फोटो छपवा देंगे और नीचे अपना नाम लिखवा देंगे। उसी समय दूसरा बोला - उस विज्ञापन