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________________ गुरुवाणी-३ वृद्धानुग १८७ में केवल हमारा नाम ही नहीं, बल्कि अपनी पत्नी और पुत्रों के नाम भी लिखवाएंगे। इस प्रकार वे उस बुढ़े के मरने की राह देख रहे थे। दो दिन बीत गए, उसकी पुत्री ससुराल से पिहर आई और अपने पिता की ऐसी दयनीय दशा देखकर उसने भाईयों से कहा - भाई ! पिताजी को तो प्रभा शंकर वैद्य पर पूर्ण श्रद्धा थी। अभी तक वे उन्हीं की दवा लेते रहते थे। हम भी एक बार उस वैद्य को बुलाएँ तो ? पुत्रों के हृदय में तो यह बात थी कि पिताजी कब मरें ? वे उनके उपचार के लिये क्यों प्रयत्न करते? कैसा स्वार्थी संसार है ! कैसी अधम कोटि की विचारधारा है? यह देश कैसे सुखी होगा? बहन को बुरा न लगे इसीलिए बेमन ही उन्होंने वैद्य को बुलाया । वैद्य ने आकर किसी औषधि को पीस कर वृद्ध को पिलाई। यह औषधि थोड़े ही समय में असर दिखाने लगी । धीमे-धीमे वृद्ध ने आँखे खोली । दो-चार घण्टे के बाद दूसरी खुराक दी.... वृद्ध के शरीर में स्वस्थता का संचार होने लगा। दूसरे दिन तो वह वृद्ध बोलने लगा । लड़कों के मुख काली स्याही पोतने के समान काले हो गए। अरे रे... यह बुड्ढा तो जी गया । आज की सन्तानों के जीवन में कितना कालुष्य भरा हुआ है। यही कारण है कि घर-घर में क्लेश और अशान्ति दृष्टिगत होती हैं। माता-पिता का आशीर्वाद दवा की अपेक्षा भी अधिक प्रभावशाली होता है। सामान्य में सामान्य मनुष्य भी माता-पिता के आशीर्वाद से कहाँ का कहाँ पहुँच जाता है। वृद्ध मनुष्यों को तो केवल आश्रय की आवश्यकता होती है । किन्तु आज तो व्यापार से थके हुए आते हैं और अपनी पत्नी के साथ गप्पे मारने के लिए बैठ जाते हैं अथवा टी.वी. देखने लग जाते हैं । किन्तु घर में रहे हुए वृद्ध माता-पिता के साथ बोलने की भी आवश्यकता नहीं समझते। वह जी रहा है या मर रहा है, यह देखने का भी उन्हें समय नहीं मिलता। बस आज का युवक वर्ग तो मौज-मस्ती या इधर-उधर भटकने में ही आनन्द मानता है । माँ-बाप कुछ कहने जाएं उसके पहले ही उन्हें दो-चार बातें सुननी पड़ती हैं। इसलिए वे बेचारे मौन ! I
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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