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________________ गुरुवाणी - ३ वृद्धानुग १८१ एक ने कहा कि मैं तो घी लेने के लिए निकला हूँ और दूसरे ने कहा मैं चमड़ा लेने के लिए निकला हूँ। दोनों को संध्या का भोजन कराने के लिए बुढ़िया बिठाती है। घी के व्यापारी को बुढ़िया घर के अन्दर बिठाती है और चमड़े के व्यापारी को घर के बाहर पड़साल में बिठाती है। उस युग में अनेक घरों में ऐसी व्यवस्था रहती थी कि हल्की कोम के मनुष्यों को घर के किनारे अथवा पड़साल में बिठाते थे। आज तो सब कुछ वर्णसंकर हो गया । तुम्हारे ही पड़ोस में ढेढ़ और भंगी भी रहते हैं और कसाई या मुसलमान भी रहते हैं.... तुम्हारी सन्तानें नीच कुल में विवाह कर लेती हैं.... इस प्रकार का बहुत कुछ आज के युग में (देश में) चल रहा है। संस्कार की पूंजी पूर्णतः नष्ट हो चुकी है। दूसरे दिन दोनों व्यापारी आगे चले । कुछ समय पश्चात् दोनों ने अपना-अपना माल लेकर वापिस आते हुए, इसी बुढ़िया के यहाँ डेरा डाला । बुढ़िया ने दोनों का स्वागत किया। दोनों को भोजन के लिए बिठाया, किन्तु इस समय चमड़े के व्यापारी को भीतर बिठाया और घी के व्यापारी को बाहर बिठाया। घी के व्यापारी को यह बात सहन नहीं हुई, इसीलिए उसने बुढ़िया से पूछा - माँजी ! ऐसा कैसा व्यवहार? जाते समय तो आपने मुझे अन्दर बिठाया था और चमड़े के व्यापारी को बाहर बिठाया था और आज उसको अन्दर बिठाया और मुझे बाहर बिठाया, इसका क्या कारण है? बुढ़िया कहती है - भाई ! घी को लाने लिए जाते समय तुम्हारे विचार बहुत सुन्दर थे। तुम विचार करते थे कि मैं जहाँ जाऊं वहाँ सुकाल हो.... घी और दूध की नदियाँ बहती हो तो बहुत बढ़िया होगा, जिसके कारण मुझे घी सस्ते भाव में मिलेगा। जबकि चमड़े के व्यापारी का ऐसा विचार था कि मैं जहाँ जाऊं वहाँ दुष्काल हो तो अच्छा। दुष्काल से पशु अधिक मात्रा में मरेंगे और मुझे चमड़ा सस्ते भाव में मिलेगा। आज तुम घी और चमड़ा लेकर वापिस आए हो। इससे तुम दोनों के विचार में अन्तर आ गया है। तुम्हें यह विचार आया कि अब मैं जहाँ जा रहा हूँ वहाँ अकाल हो तो अच्छा, इससे मेरा
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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