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________________ १८० वृद्धानुग गुरुवाणी - ३ के चिन्तन द्वारा जो बुद्धि पूर्ण रूपेण परिपक्व हो जाती है.... किसी कार्य में जल्दबाजी नहीं करतें । धैर्य से काम लेते हैं। कार्य और अकार्य का विवेक करते हैं.... चाहे पंचेन्द्रियों के विषय सामने आकर खड़े हों, चाहे मकान का रूप हो, अथवा कपड़े का रूप हो, अथवा १००० के नोटों के बन्डल रूप हों। यह आँख का विषय है । इसी तरह विविध प्रकार के विषय सामने आकर खड़े होने पर भी जिसका एक रोम भी प्रभावित नहीं होता उसी को वृद्ध कहते हैं। वृद्ध मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति विचार करने बाद ही होती है। शराब के नशे के समान तरुणाई में भी एक नशा होता है। शराब पीकर वाहन चलाने वाले कितनी दुर्घटनाएं करते हैं? आज प्राय: कर दुर्घटनाओं का मुख्य कारण ही यही है । स्वस्थ बुद्धि से चलाएँ तो इस प्रकार की दुर्घटनाएं बहुत कम हो सकती है। शराब के नशे में मनुष्य को होश भी नहीं रहता है। उसी प्रकार जवानी के नशे में होश भूले हुए युवक झटके से काम करना ही ठीक समझते हैं। जमे - जमाए घर को कुछ ही मिनटों में बिखेर कर नष्ट कर देते हैं। वृद्ध मनुष्यों की संगत से जीवन बहुत कुछ बदल जाता है। हृदयपारखी बुढ़िया की कथा एक गाँव में एक बुढ़ी रहती थी। उस समय में आने-जाने के लिए गाड़ी आदि साधन नहीं थे। उस समय के लोग प्राय: करके पैदल चलकर एक गाँव से दूसरे गाँव जाते थे। उस रास्ते में जो भी गाँव आता वहाँ किसी भले आदमी के यहाँ रात को रूक जाते। उस समय में अतिथि देव के समान माना जाता था । अतिथि सत्कार बहुत अच्छा मानते थे। कोई दो व्यापारी घी और चमड़ा खरीदने के लिए उस गाँव की सीमा से जा रहे थे। सांझ हो चुकी थी । अतः किसी के यहाँ रात्रि निवास करने के लिए गाँव में जाते हैं। इस बुढ़िया के वहाँ रात्रि निवास करते हैं । बुढ़िया दोनों का सत्कार करती है और पूछती है भाई ! किस कार्य से निकले हो ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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