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वृद्धानुग
कार्तिक वदि १
गुणस्वरूप धर्म
शास्त्रकार महाराज हमको सुखी बनाने के लिए मार्ग बता रहे हैं। सर्वत्र धर्म ही सुखी होने का मार्ग है। बाह्य दृष्टि से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म बहुत बड़ गया है किन्तु धर्म का अन्तरङ्ग स्वरूप नष्ट हो गया है। इसी कारण ही धर्म बढ़ते हुए भी जगत् में अशान्ति घटने के स्थान पर बड़ रही है। जब तक गुण स्वरूप में धर्म को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक धर्म का ढांचा, ढांचा ही रहेगा। उसमें प्राण नहीं आ सकते। कोई भी धर्म गुण के साथ होगा तो उसका फल अमूल्य बन जाएगा। चाहे दान हो, शील हो अथवा तप हो।शालीभद्र का दान इतनी अल्प मात्रा में था, किन्तु उसमें कितने अधिक भाव भरे हुए थे। अभी तो दान देना भी हो तो अपने दिखावे के लिए, स्वयं के अहम् को पुष्ट करने के लिए अथवा दूसरे को नीचा दिखाने के लिए। ऐसे धर्म का क्या फल मिलेगा? एक तरफ शराब पीते हों और दूसरी तरफ भगवान को विराजमान करते हों तो उस भगवान में ओज किस प्रकार आएगा? हमारा प्रतिमा की ओर भावोल्लास किस प्रकार प्रकट होगा? भले ही धर्म थोड़ा करो किन्तु गुण के साथ करो। 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते भयात्।' अर्थात् धर्म का छोटा आचरण भी बड़े से बड़े भय में से उभार लेता है। अर्थात् रक्षा करता है।
सत्तरवाँ गुण - वृद्धानुग। धर्मार्थी मनुष्य वृद्ध का अनुसरण करने वाला होना चाहिए।
मनुष्य को सर्वदा बड़े की संगति करना योग्य है। सामान्यतः मनुष्य युवक होता है, तो युवक की ही अभिलाषा करता है। परन्तु उससे