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गुरुवाणी-३
महामन्त्र नवकार जहाँ मैं पैर र वहाँ रहे हुए सर्व जीवों का कल्याण हो। सेवा पूजा, या सामायिक-प्रतिक्रमण नहीं कर सकते हो तो दुकान में अथवा व्यापार में व्यस्त हो तब भी बैठे-बेठे ऐसी शुभ भावनाओं का बन्धन कर सकते हो न! तीर्थंकर नाम कर्म तो बांधने वाले अनेक होते हैं, किन्तु निकाचित तो कोई विरल आत्मा ही कर सकती है। शेष तो तीर्थंकर नाम कर्म का प्रदेश उदय भोग लेते हैं। बहुमूल्य ऋद्धि या मान-सम्मान पाते हैं। एक व्यक्ति के पुण्य प्रताप से आज हजारों वर्ष के बाद भी संघ खड़ा है। उसके नाम पर करोड़ो रुपये व्यय होते हैं। उसकी छाया भारत वर्ष में तो है ही किन्तु विदेशों में भी फैली हुई है। कैसा प्रचण्ड पुण्य! यह पुण्य किसमें से आया? तीसरे भव में मासक्षमण में सतत् यह ही विचारधारा की कि जगत् के जीव सुःखी कैसे हों? हमारी विचारधारा में हम कैसे सुखी हों यही भावना होती है। इसीलिए तो नवपद का जाप करने पर भी फलदायी नहीं होता है। सुविचारधारा से ही जाप शीघ्रता से फलदायी बनता है।
- सर्वजीवों का ध्यान करने पर वह अरिहंत का उपासक बनता है - साधनाओं का ध्यान करने पर वह सिद्ध का उपासक बनता है - सदाचार का पालन करने पर वह आचार्य का उपासक बनता है । - सम्यक् ज्ञान का सेवन करने पर वह उपाध्याय का उपासक बनता है - सहाध्यायी की सेवा करने पर वह साधु का उपासक बनता है
शक्कर का पानी पित्त को शांत करता है। जिनवाणी का अमृत पान चित्त को शांत करता है।