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________________ १७० सिद्धचक्र का ध्यान गुरुवाणी-३ है। उसको तो दुःखी के दुःख की कल्पना भी नहीं आती। साधु महाराज ने कहा - जो तुझे रोगरहित बनना है तो पहले तू विरति में आ फिर तू खाने पर संयम रख तभी तेरा यह रोग मिट सकता है। वह बेचारा भी रोग के कारण बहुत उद्विग्न हो गया था, इसलिए विरति अर्थात् पच्चक्खाण के बंधन में आने के लिए तैयार हो गया। उसने साधु महाराज के पास से नियम लिया कि एक अनाज, एक विगई, एक बार भोजन और चार बार पानी पीने के अतिरिक्त अन्य सब पदार्थों का त्याग करता हूँ। खाने पर संयम रखने से धीमे-धीमे उसका शरीर रोग-रहित होने लगा। आज भी ऐसी अनेक घटनाएं देखने को मिलती है कि कोई केंसर जैसी भयंकर व्याधि से पीड़ित था। उस मनुष्य को ऐसा लगा कि अब मैं शीघ्र ही प्रस्थान करने वाला हूँ। ऐसी दशा में इस मौके को हाथ से क्यों जाने दूं। कई महात्मा ऐसी जीवन को हरण करने वाली व्याधि के होने पर उपवास पर उतर जाते हैं। कितने ही अनशन स्वीकार कर लेते हैं और खाद्य पदार्थों के बन्द होते ही शरीर के भीतर उस बीमारी को जब पोषण नहीं मिलता तो वह स्वतः ही नाश होने लगती है तथा स्वास्थ्य सुधरने लगता है। प्राणों को हरण करने वाली व्याधि भी मिट जाती है। कहा जाता है कि लड्यनम् परमौषधम्। उपवास यह बड़ी से बड़ी दवा है। उस बालक की तबीयत सुधरने पर उस साधु महाराज पर अत्यधिक श्रद्धा उत्पन्न हुई और धर्म पर सद्भावना भी जागृत हुई। उसके निरोगी होते ही उसके पास धन भी आने लगा। पदार्थ तो उसे चार ही खाने थे इसलिए धन भी बढ़ने लगा। उस पैसे में से उसने व्यापार-धंधा प्रारम्भ किया। भीख मांगना छोड़ दिया। इसी को भाग्य की लीला कहते हैं। कभी यह खिल जाती है और कभी कुम्हला जाती है। इस भाग्य के सम्बन्ध में कुछ कह नहीं सकते। इस लड़के का भी धंधा दिन दुगुना और रात चौगुना बढ़ता गया। वह लखपति ही नहीं करोड़पति बन गया। बड़ा सेठ बन गया। स्वयं का वृत्तिसंक्षेप का नियम था। अतः उस धन का उपयोग कहाँ
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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