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________________ सिद्धचक्र का ध्यान १६८ गुरुवाणी - ३ के द्वारा सचोट ज्ञान प्राप्त करते थे । वैद्य भी ऐसे थे कि तुम्हारी नाड़ी देखकर ही कह देते थे कि तुमने आज क्या खाया है? कितने ही तो आकृति पर से ही रोगों का निदान कर देते थे। आज ये सब साधनाएं पूर्णत: लुप्त हो गई हैं। नैमित्तिक लोग जो कहते थे वह कदापि झूठ नहीं होता था । उन्होंने ऐसा सचोट ज्ञान प्राप्त कर रखा था। राजसभा में नैमित्तिक आता है। राजा ने स्वाभाविक रूप से पूछा- बोलिए, आपके ज्ञान में अभी क्या दिखाई दे रहा है? नैमित्तिक ने ज्ञान के बल से कहा कि बारह वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ेगा। आपको जो व्यवस्था करनी हो वह कर लें। यह सुनकर राजा चिन्तातुर हो गया । प्रजा को बारह-बारह वर्ष तक किस प्रकार से बचाना? सब उदास हो गए। संग्रह भी कितना किया जा सकता है? अन्न पानी का संग्रह भी कितना किया जाए? क्या देश छोड़कर परदेस चले जाएं? यह भी संभव कहाँ है? जमा हुआ व्यापारधंधा और घरबार आदि छोड़कर जाना भी कोई सहज नहीं होता है । चौमासा निकट में आ गया। आकाश में से आग की वर्षा हो रही है। राजा को ऐसा लगा कि नैमित्तिक की बात सच होने वाली है। सब चिन्ता में थे। किसी को कोई मार्ग नहीं दिखाई देता था । आषाढ़ महीना समाप्त होने को था। एक दिन आकाश में एक बादल दिखाई दिया। देखते-देखते उसका विकसित स्वरूप होता गया और थोड़े ही समय में ऐसी मूसलाधार वर्षा प्रारम्भ हुई। सारी पृथ्वी जलमग्न बन गई। इतनी अधिक वर्षा हुई कि एक ही वर्षा से लोग तृप्त हो गये। लोग विचार में पड़ गए क्योंकि नैमित्तिक का वचन कभी भी असत्य नहीं होता था । नैमित्तिक को बुलाकर पूछा कि तुम्हारा ज्ञान कभी भी गलत नहीं होता था, आज क्या हो रहा है? वह नैमित्तिक भी कहता है - हे राजन् ! मैंने अपने ज्ञान के अनुसार ग्रहों की दशा देखकर कहा था । उसके अनुसार इस प्रकार की वृष्टि हो ही नहीं सकती। मैं स्वयं सन्देह में हूँ, यह कोई चमत्कार ही लगता है ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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