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________________ सिद्धचक्र का ध्यान आसोज सुदि १४ महापुरुष कहते हैं कि ८४ लाख जीवयोनि रूपी भयंकर अटवी को पार करते-करते महापुण्य के उदय से मानव जन्म को प्राप्त किया, किन्तु अभी एक विशाल अटवी को पार करना शेष है। वह है, वृत्तियों की, विकारों की और विचारों की। इस अटवी को पार करने के लिए भगवान का साथ चाहिए ही। ८४ लाख योनि के संस्कारों को जलाने के लिए तप रूपी अग्नि ही काम आती है। चेतना के भीतर भरे हुए वैभवविलास के पदार्थों को दूर कर वहाँ नवपद की स्थापना करो। हम तप के अभ्यन्तर भेदों को देख रहे हैं। पाँचवाँ भेद है ध्यान । अर्थात् सिद्धचक्र का ध्यान। हमारी चेतना में सिद्धचक्र के स्थान पर विलास का चक्र स्थापित है। भगवान के बदले भोगवान ही बैठे हुए हैं। जब तक नवकारवाली गिननी हो, तब तक चेतना में रहे हुए सांसारिक पदार्थों को दूर कर अरिहंत आदि को लाना चाहिए। किन्तु जब ध्यान पूर्ण होता है, तो स्वाभाविक रूप से अरिहंत आदि चले जाते हैं और संसार के पदार्थ वापिस आकर अपना स्थान ले लेते हैं। सांसारिक पदार्थों को चित्त से खदेड़ने में बहुत परिश्रम लगता है। हाँ इनको लाने के लिए तनिक भी मेहनत नहीं करनी पड़ती। ये स्वतः ही आकर खड़े हो जाते हैं। क्योंकि हमारे हृदय में सांसारिक पदार्थों के प्रति अतिशय राग है। हमारा ध्यान भी एक प्रकार का व्यायाम ही बन जाता है। श्वासों को देखो और लो। एक मानसिक व्यायाम के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी हाथ में नहीं आता है। भगवान के ध्यान को श्वासोश्वासमय बनाने की आवश्यकता है। हमको खबर भी नहीं होगी और हमारे श्वास में अरिहंत का स्मरण चलता होगा। इसको 'अजपाजप' कहा जाता है। जब जाप ऐसा अजपा बनेगा तब ही वास्तविक आनन्द प्राप्त होगा और सहजता से समाधि भी आ जायेगी।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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