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नौवाँ पद - नमो तवस्स
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गुरुवाणी - ३ के घूंट उतारते रहते हैं । तनिक भी हृदय को ठेस नहीं लगती । साधु के लिए तो स्वाध्याय सबसे बड़ा भोजन है। तप में न्यूनता होगी तो चलेगा किन्तु स्वाध्याय तो चाहिए ही । स्वाध्याय अर्थात् गाथाओं को रट-रट कर कण्ठस्थ करना मात्र नहीं है बल्कि उसके अर्थ में रमणता होनी चाहिए। यही सच्चा स्वाध्याय है । चिन्तन - मनन.. निदिध्यासन ये स्वाध्याय के फल हैं।
जैनों का तप उत्तम कोटि का है । कहीं पर भी ऐसे तप देखने को नहीं मिलेंगे। भगवान महावीर ने हमको कितने उत्तम में उत्तम तप दिए हैं, उनके हम पर अनंत उपकार हैं।
कंचन, कामिनी, पुत्र-पौत्र यह सब प्रेय पदार्थ हैं । सर्वदा पराधीन हैं। जबकि हमारे समक्ष क्षमा, सरलता, कोमलता, निर्लोभता आदि श्रेय पदार्थ हैं जो सर्वदा स्वाधीन हैं। श्रेय पदार्थों से अत्यन्त लाभ होता है और क्लेश कम होता है। जबकि प्रेय पदार्थों से लाभ कम होता है और क्लेश अधिक होता है। किन्तु आज का मनुष्य श्रेय को छोड़कर प्रेय के चक्कर में पड़ा हुआ है।