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गुरुवाणी-३
नौवाँ पद - नमो तवस्स स्वीकार करना भी अत्यन्त कठिन है। चण्डकौशिक नाग किस कारण से बना? ऋषि के भव में भूल की क्षमा नहीं मांगी इसीलिए ही न! भूल कितनी छोटी सी, सजा कितनी बड़ी! इसीलिए कहा जाता है कि स्वीकार में सुख और इन्कार में दुःख।
२.विनय :- विनय की आराधना करना अत्यन्त ही कठिन है। सबको ऐसा लगता है 'मैं कुछ हूँ'। यही सूत्र सबके दिमाग में घूमता रहता है। इस सूत्र को दूर करने के लिए विनय की अत्यन्त आवश्यकता है। दिमाग को पहले खाली करो फिर देखो कि अरिहंत आदि नवपदों का प्रकाश कैसे फैलता है? विनय अर्थात् आठों कर्मों का विनयन (दूर करने का काम) जो करें। उसी को विनय कहते हैं।
३. वैयावच्च :- प्रायश्चित जीवन में कदाचित् आ जाए। अरे! विनय भी आ जाए, किन्तु स्वयं के शरीर को झुकाना बहुत ही दुष्कर है। सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः। योगियों को साधना करना सहज है, किन्तु सेवा धर्म अत्यन्त कठिन है। साधना में तो मन को एकाग्र ही बनाना पड़ता है, जबकि इसमें तो मन का भोग देना पड़ता है। इच्छाओं का भोग देना पड़ता है। सेवा कभी भी निष्फल नहीं जाती। यह गुण अप्रतिपाती है। इस तप से अनन्त जन्मों के कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। ऋषभदेव भगवान् के पूर्व जन्म की बात है। बाहुबली ने बल को अक्षय किया
__ भगवान ऋषभदेव के पीठ और महापीठ तथा बाहु और सुबाहु नाम के चार शिष्य थे। पीठ और महापीठ स्वाध्याय ही किया करते थे। चौदह पूर्वधारी थे। जबकि बाहु और सुबाहु दोनों ही वैयावच्च किया करते थे। पाँच सौ साधुओं की गोचरी - पानी लाते थे। उनके पैर भी दबाकर सेवा करते थे। भगवान् बाहु-सुबाहु के काम की प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा पीठ और महापीठ को सहन नहीं होती थी। उन दोनों ने मन