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नौवाँ पद - नमो तवस्स गुरुवाणी - ३ कर भीतर की ओर ले लेता है, उसके बाद उसके ऊपर से गाड़ी भी निकल जाए तब भी उस कछुए को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होती। उसी प्रकार हमें भी पांचों इन्द्रियों को संकुचित कर लेना चाहिए। पाँचों इन्द्रियाँ बाहर भटक रही हैं । उसको तप के द्वारा भीतर की ओर मोड़ें। 'पराणि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः ।' विधाता ने पाँचों इन्द्रियों का प्रवाह बाहर की तरफ रखा है । आँखें तो बाहर के ही पदार्थों को देखती है और उसी में आनन्द का अनुभव करती है। वैसे ही कान भी बाहर का ही सुनते हैं । भीतर से उठी आवाज को दबा देते हैं। यदि इन समस्त इन्द्रियों को भीतर की तरफ ले जाएं, तो अनेक क्लेशों से मुक्ति मिल सकती है। यह सब विडम्बनाएं इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करने के लिए ही होती है न! इन्द्रियाँ जितनी उपयोगी हैं, उतनी ही खतरनाक भी हैं । बाह्य तप का मुख्य सम्बन्ध जिह्वा के साथ है। जबकि अभ्यन्तर तप का मुख्य सम्बन्ध आत्मा के साथ है।
अभ्यन्तर तप के छः भेद
१. प्रायश्चित २. विनय ३. वैयावच्च ४. स्वाध्याय ५. ध्यान ६. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग )
१. प्रायश्चि :- बाहर का तप लोगों को दिखाई देता है । तुम उपवास करो या एकासणा । उसकी सभी लोगों को खबर पड़ जाती है, किन्तु अभ्यन्तर तप को तो वह व्यक्ति स्वयं ही जान पाता है । प्रायश्चित अर्थात् प्राय: करके चित्त को शुद्ध करने वाला। किसी भी प्रकार का पाप करने के पश्चात् गुरु के पास जाकर उसको कहना अति दुष्कर है। स्वयं के द्वारा स्वयं की भूल को स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं होता । स्वीकार करना ही बड़ी बात है । स्वयं के मुख से स्वयं की भूल को स्वीकार करते समय मनुष्य के लिये अहंकार बाधक बनता है। पहले तो उसे स्वयं की भूल दिखाई भी नहीं देती। भूल दृष्टिगत हो जाए तो उसे