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________________ १६१ गुरुवाणी-३ नौवाँ पद - नमो तवस्स ४. रसत्याग :- पूर्व के तप में कहा गया है कि पदार्थ कम खाए जाएं किन्तु कम पदार्थ भी अधिक रस वाले नहीं खाने चाहिए। कोई ऐसा कहता है कि मैं तो केवल दो चीज ही खाऊँगा किन्तु लड्डू और खीर। तो यह नहीं चलेगा। कम पदार्थ हों किन्तु अधिक रस वाले (गरिष्ट) न हों। अति स्निग्ध आहार जीव को प्रमादी बनाता है। तुमने अनुभव किया होगा कि किसी जीमण में अधिक गरिष्ट पदार्थ खाकर आए। बाद में आँखें घिरने लगी, आराम करना ही पड़ता है, ऐसा होता है न! इसीलिए भगवान ने कहा है कि अल्पाहार और वह भी अल्प रस वाला आहार करना चाहिए। यह भी तप का एक प्रकार है। ५. कायक्लेश :- खाने-पीने के पश्चात् बैठे रहना नहीं चाहिए। अन्यथा शरीर की चर्बी बढ़ जाती है। आज के मनुष्यों के उसमें भी अधिकांशतः स्त्रियों के शरीर कैसे बेडौल बन गए हैं। बस बैठे-बैठे खाना और नौकरों को आदेश करना। उससे शरीर में चर्बी नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा? शरीर को तनिक भी श्रम नहीं पड़ना चाहिए। एक मंजिल भी उनको चढ़ने का नहीं, लिफ्ट तैयार रहती है। शास्त्रकार कहते हैं कि जीवन में अन्य किसी प्रकार का श्रम न हों तो अन्त में मन्दिर में जाकर १०० खमासमण देने चाहिए। जब काया प्रमादी बनती है। तो मन तो प्रमादी बनेगा ही और आलसी मन विकल्पों के जाल बुनकर कर्मों को बांधा करता है। कायक्लेश को भी तप कहा गया है। प्रतिक्रमण आदि में क्रियाएं खड़े-खड़े करनी चाहिए। हमें लोच का कष्ट होता है। यह सब कायक्लेश है। ६. संलीनता :- हमारा चित्त बाह्य पदार्थों पर ही भटकता रहता है। उसको यदि भीतर की तरफ ले जाएं तभी परमात्मा मिलते हैं। बाहर भटकते हुए चित्त को भीतर की ओर ले जाना यह महातप है। कछुए का उदाहरण आता है। कछुआ स्वयं के शरीर के समस्त अंगों को संकुचित
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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