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नौवाँ पद - नमो तवस्स ___गुरुवाणी-३ कैसी दुष्कर तपस्या की आराधना करते हैं। साढ़े बारह वर्ष तक भगवान् ने भूमि का स्पर्श भी नहीं किया अर्थात् बैठने का नहीं, सोने का नहीं, बस खड़े-खड़े ध्यान में ही रहने का है। ऐसी घोर तपश्चर्या भगवान ने की थी।
२. उनोदरी :- चारों इन्द्रियों का आधार जीभ पर है। संसार के सब प्रकार के क्लेश जीभ के आभारी हैं। शरीर के रोग भी अधिकांशतः जीभ के कारण ही होते हैं । चौबीसों घण्टे मनुष्य की चक्की चालू रहती है। अनशन नहीं हो सकता तो उनके लिए यह तप बहुत उत्तम है। उनोदरी अर्थात् भुख से कम खाना । उनोदरी से बहुत प्रकार के रोग रुक जाते हैं। यह तप बहुत ही कठिन है, क्योंकि मनुष्य के सामने इच्छित भोजन हो तो वह ढूंस-ठूस कर ही खाता है। इस तप में तीन बार खाने का होता है फिर भी यह तप कहलाता है। इस तप को करने से शरीर के अधिकांशतः रोग खत्म हो जाते हैं।
३. वृत्तिसंक्षेप :- वृत्तियों का संक्षेप करना। कम द्रव्यों का उपयोग करना। आज तो विविध प्रकार के पदार्थ, अनेक प्रकार के फल
और अनेक प्रकार की सब्जियाँ देखने को मिलती है, अगर जो अधिक वस्तुएं उदर में जाएंगी तो वे एकत्रित होकर झगड़ा करेंगी। भीतर एकत्रित होकर ये सब लड़ती है और मनुष्य को रुलाती है। पूर्णतः कम द्रव्य और सादा भोजन ही उत्तम भोजन है। आज तो विविध प्रकार के पदार्थ वैभव की निशानी माने जाते हैं। कितने ही प्रकार के अचार और मुरब्बे होते है। किसी-किसी अवसर पर दिन के भोजन की एक थाली १५० अथवा २०० रुपयों की पड़ जाती है। अरे, हमने अभी सुना है कि एक भाई के लग्न में एक थाली की कीमत ४०० रुपया थी। भोजन तो शरीर को टिकाने के लिए है जबकि आज शरीर को खत्म करने के लिए बन गया है। आहार वैसी डकार! आहार विलासी तो जीवन विलासी अर्थात् जिन्दगी की बरबादी।