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गुरुवाणी - ३
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दर्शन - ज्ञान - चरित्र मन में त्याग का अहंकार था । उन्होंने दूसरे साधु को बात-बात में कहा कि मैंने तो इतनी सारी ऋद्धि को लात मारकर के दीक्षा ली है। सामने विज्ञ और समझदार साधु थे । उन्होंने धीमे स्वर में कहा महाराज ! आपने लात तो अवश्य मारी किन्तु वह लात बराबर लगी हो ऐसा नहीं दिखाई देता क्योंकि पहले तो लक्ष्मी थी उसका अहंकार था और अब उसके त्याग का अहंकार है । पदार्थों का त्याग यह त्याग नहीं किन्तु उसकी तरफ के राग़ का त्याग ही सच्चा त्याग है । श्रीपाल के पास अखूट समृद्धि होने पर भी वे त्यागी की अपेक्षा भी बड़े - चड़े थे, क्योंकि उनमें वस्तुओं के राग का त्याग था ।
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जीवन में यदि शिकायत ही करनी हो तो इन तीन की करो.....
१. भगवान् मुझे क्यों नहीं मिलते?
२. भगवान् मिल गये हैं, तो हमें रूचिकर क्यों नहीं लगते ?
३. भगवान् रूचिकर लगते हैं, तो मैं स्वयं भगवान क्यों नहीं बन जाता ?