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________________ गुरुवाणी - ३ १५८ दर्शन - ज्ञान - चरित्र मन में त्याग का अहंकार था । उन्होंने दूसरे साधु को बात-बात में कहा कि मैंने तो इतनी सारी ऋद्धि को लात मारकर के दीक्षा ली है। सामने विज्ञ और समझदार साधु थे । उन्होंने धीमे स्वर में कहा महाराज ! आपने लात तो अवश्य मारी किन्तु वह लात बराबर लगी हो ऐसा नहीं दिखाई देता क्योंकि पहले तो लक्ष्मी थी उसका अहंकार था और अब उसके त्याग का अहंकार है । पदार्थों का त्याग यह त्याग नहीं किन्तु उसकी तरफ के राग़ का त्याग ही सच्चा त्याग है । श्रीपाल के पास अखूट समृद्धि होने पर भी वे त्यागी की अपेक्षा भी बड़े - चड़े थे, क्योंकि उनमें वस्तुओं के राग का त्याग था । — जीवन में यदि शिकायत ही करनी हो तो इन तीन की करो..... १. भगवान् मुझे क्यों नहीं मिलते? २. भगवान् मिल गये हैं, तो हमें रूचिकर क्यों नहीं लगते ? ३. भगवान् रूचिकर लगते हैं, तो मैं स्वयं भगवान क्यों नहीं बन जाता ?
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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