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गुरुवाणी-३
दर्शन - ज्ञान - चरित्र 'चारित्र विण नहीं मुक्तिरे' संयम के बिना इस जीव का उद्धार नहीं हैं। संयम अर्थात् केवल वेश बदलना मात्र नहीं है, किन्तु जीवन में क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लेपता.... ये सब गुण आवश्यक हैं। सब लोग चारित्र लेने में समर्थ नहीं होते हैं, किन्तु उनकी चेतना में जो भोग के प्रति राग है, उसके स्थान पर त्याग के प्रति राग हो तो वे साधु की अपेक्षा भी बड़ेचड़े होते हैं। श्रीपाल महाराजा चारित्र के बिना भी ऊँचे स्थान पर पहुंचे थे। उसका कारण यह है कि उनके चित्त में अरिहंत आदि के प्रति अविचल राग था । त्याग का राग लूंस-ठूस कर भरा हुआ था। इसी कारण संयम के बिना भी उन्होंने उच्च गति प्राप्त कर ली। हमारे लिए यह विचार करना आवश्यक है कि हमारी चेतना में कौन बैठा हुआ है? घर और वैभव के पदार्थ या परमात्मा? अधिकांशतः मनुष्यों की चेतना में संसार के वैभव ही समाहित हैं। जिसकी ओर राग होता है, वहीं चित्त आकर्षित होता है। नवकारवाली गिनते-गिनते संसार के पदार्थों में क्षण-क्षण में ध्यान चला जाता है। संसार के पदार्थों की तरफ राग है, इसीलिए ही जाता है न! जो वीतराग की तरफ राग हो तो नवकारवाली गिनते हुए चित्त कहीं भी नहीं जाएगा। जहाँ राग वहाँ खिंचाव।शास्त्रकार कहते हैं कि चेतना में सिद्धचक्र के नवपदों को स्थान पर बैठाओ। तुम्हारा भवभ्रमण रुक जाएगा। यदि संसार के पदार्थों को हृदय में स्थापित करोगे तो भवभ्रमण बढ़ जाएगा। भूतकाल में जब अरिहंत परमात्मा विचरते थे, तब भी अनन्त आत्माएं उनके दर्शन से, वाणी से वंचित रहती थी। किसलिए? उनकी चेतना में अरिहंत की स्थापना नहीं थी। साधना में से ही सिद्धि मिलती है, किन्तु मनुष्य प्रसिद्धि के चक्कर में पड़ा हुआ है। त्याग का भी अहंकार....!
कभी-कभी मनुष्य को त्याग का भी अहंकार आ जाता है। एक साधु थे। परिवार युक्त और सुखी घर के थे। एशो-आराम, मौज-मस्ती और वैभव को छोड़कर दीक्षा ली थी, किन्तु दीक्षा लेने के बाद भी उनके