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दर्शन - ज्ञान - चरित्र
गुरुवाणी-३ ज्ञान नहीं होता तो अरिहंत किस भांति बनते। ज्ञान यह संसार सागर की दीवादांडी है। मनुष्य अनेक जन्मों के कर्मों को स्वाध्याय द्वारा ही खपाता है। महापुरुष भी जब संसार की असारता को समझते हैं, तभी निकलते हैं ! अज्ञानी मनुष्य करोड़ो भव तक तपादि क्रिया द्वारा जो कर्म खपाते हैं, उन कर्मों को तीन गुप्तियों से युक्त ऐसे ज्ञानी एक श्वासोश्वास में खपा/ नष्ट कर देते हैं।
पहले हमारे बाप-दादा इतने लड्डू खाते थे, इतनी रोटी खाते थे और इतना घी पचा सकते थे। लेकिन आज तो नमकीन का जमाना आया है। यह तो भोजन की बात हुई। उसी प्रकार ज्ञान में पहले के श्रावक अनेक शास्त्रों को सुनते और पचाते थे। साधुओं को भी सावधान रहना पड़ता था। व्याख्यान में भी कोरे किस्से नहीं चलते थे। आगम ही पढ़े जाते थे। श्रावक बहुश्रुत कहलाते थे, लेकिन आज जिस प्रकार भोजन में नमकीन आ गया है, उसी प्रकार ज्ञान भी बेकार हो गया है अर्थात् हंसीमजाक वाला बन गया है। आज तत्त्वज्ञान की बातें रुचिकर नहीं लगती। व्याख्यान हास्यप्रेरक हो वैसा ही व्याख्यान अच्छा लगता है। भूतकाल में श्रुतज्ञान से भी साधु पुरुष केवली कहे जाते थे। अर्थात् श्रुतकेवली कहे जाते थे। आठवाँ पद - चारित्रपद
चारित्र यह क्रियापद है। जैसे क्रियापद से रहित वाक्य अपूर्ण होता है वैसे ही चारित्र पद के बिना सारे पद अधूरे हैं। वाक्य में कर्ता और क्रियापद होने ही चाहिए। अरिहंत-सिद्ध ये कर्ता हैं । दर्शन, ज्ञान और तप ये करण हैं और चारित्र यह क्रियापद है। राग का त्याग और त्याग का राग
चक्रवर्ती जैसा समृद्धिशाली व्यक्ति भी तृण के समान छः खण्ड के वैभव का त्याग करके चारित्र मार्ग पर निकल पड़ता है, किसलिये