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गुरुवाणी-३
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दर्शन - ज्ञान - चरित्र यह पाँचों सम्यक्त्व को दूषित करने वाले होने से इनको सम्यक्त्व का दूषण कहा है। पंचपरमेष्ठि मिलने के बाद उसमें रुचि होना ही महत्त्व का है। जो पाँच परमेष्ठियों पर हमारी अधिक रुचि है, तब यह समझना चाहिए कि हमारे पास सम्यक् दर्शन है। जब सच्चा सम्यक् दर्शन होता है तब उसको ऐसा लगता है कि अनन्त जन्मों में जो यह आँख मुझे नहीं मिली थी ऐसी दिव्य आँख मुझे मिली है। भगवान् का मार्ग इसी दिव्य
आँख के द्वारा ही देखने को प्राप्त होता है। चर्मचक्षु से नहीं देख सकते। यह चक्षु भी शास्त्रों के अध्ययन द्वारा तथा उसमें श्रद्धा होने से ही प्राप्त होता है। अरिहंत परमात्मा के मूल में भी सम्यक् दर्शन ही है। समकित प्राप्त होने के बाद ही उनके भवों की गणना होती है। ज्ञान और चारित्र इसका मूल है। सातवाँ पद - नमो नाणस्स
सम्यक् दर्शन के आधार पर ही शासन का महल खड़ा है किन्तु उसके मूल में तो ज्ञान ही है। ज्ञान ही प्रकाश है। जीवन में अनादिकाल से फैले हुए मोह के अंधकार को दूर करने वाला ज्ञान है। दशवैकालिक में आता है - 'पढमं नाणं तओ दया' अर्थात् प्रथम ज्ञान और उसके पश्चात् दया। अज्ञानियों को क्या खबर पड़ती है कि हिंसा किस में है और
अहिंसा किस में है? हेय क्या है और उपादेय क्या है? ज्ञान हो तभी दया पाल सकते हैं।
किसी मकान में सूई खो गई हो। अब उसकी खोज कैसे की जाए? किन्तु यदि वह सूई डोरे के साथ पिरोई हुई होती है, तो खोज करते हुए समय लगेगा? उसी प्रकार हमारी आत्मा सूई है। यह सूई संसार के विषयों में खो गई है, किन्तु वह यदि ज्ञान रूपी डोरे के साथ पिरोई हुई है, तो उसको खोजने में समय नहीं लगेगा।
ज्ञानपद बोलने वाला है इसी के आधार पर दूसरे पद की महत्ता है। अरिहंत भगवान को केवलज्ञान होता है, तभी वे आगे बढ़ सकते हैं।