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गुरुवाणी - ३
दर्शन - ज्ञान - चरित्र जङ्गम तीर्थ - अर्थात् महामुनियों की सेवा करना, भक्ति करना । स्थावर तीर्थ - अर्थात् तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों का स्पर्श करना, यात्रा करना । मन्दिर इत्यादि की व्यवस्था करना । उससे भी संघ विशाल बनता है। लोगों में धर्म की जाग्रति होती है । यह सब तीर्थ सेवा में आता है। ये पाँचों सम्यक्त्व की शोभा बढ़ाने वाले तथा सम्यक्त्व को उज्ज्वल करने वाले हैं, इसीलिए इनको आभूषण कहा गया है। जिस प्रकार ये सम्यक्त्व के आभूषण कहे गये हैं उसी प्रकार सम्यक्त्व को दूषित करने वाले पांच दोष भी है। उनसे मनुष्य को दूर रहना चाहिए।
समकित के पाँच दूषण
१. शंका - जिनमत में शंका करना । भगवान ने कहा है, वह सच्चा होगा या नहीं?
२. कांक्षा - अन्य धर्मों की इच्छा करना। किसी स्थान पर तन्त्रमन्त्र आदि का चमत्कार देखकर उस-उस धर्म में जुड़ने की इच्छा करना । आज तो यह बहुत है। जहाँ चमत्कार वहाँ नमस्कार ।
३. विचिकित्सा - धर्म सम्बन्धि फल में संदेह करना । मैं यह अनुष्ठान करता हूँ अथवा यह तप-जप करता हूँ, उसका फल मुझे मिलेगा या नहीं?
४. मिध्यादृष्टि की प्रशंसा मिथ्या धर्म की अथवा धर्मी की प्रगट में प्रशंसा नहीं करना । क्योंकि उससे जिनको सत्य-असत्य का ज्ञान नहीं हो ऐसे जीव इस सन्मार्ग को छोड़कर मिथ्या धर्म में फंस जाते हैं। ५. मिथ्यात्वी का परिचय - मिथ्याधर्मियों के साथ गाढ़ परिचय नहीं रखना। यह बात सभी पर लागू नहीं होती। जो देखा-देखी से ही इस धर्म में रह रहें हैं, उन्हीं के लिये यह युक्त है। छोटे पौधे के रक्षण के लिये ही वाड़ की आवश्यकता होती है। बड़े वृक्षों के लिए वाड़ की आवश्यकता नहीं होती है। अज्ञानी जीव सत्य मार्ग से भ्रष्ट न हों, इसीलिए मिथ्या दृष्टि से अधिक सम्पर्क नहीं रखना चाहिए ।