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दर्शन - ज्ञान - चारित्र
आसोज सुदि १२
समकित का चौथा आभूषण (जिनशासन में कुशलता)
सिद्धचक्र यह एक अमूल्य पदार्थ है। उसकी उपासना करने से और उन-उन पदों का ध्यान धरने से उस पद की प्राप्ति होती है। जीवन में सब लोग पदों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं किन्तु इन पदों को प्राप्त करने के लिए उनका प्रयत्न अत्यल्प होता है। एक बार जो सच्चा सम्यक् दर्शन प्राप्त हो जाए, तो जीवन-मरण का अन्त आ जाए। सम्यक्त्व भी आभूषणों से युक्त होता है, तभी शोभित होता है । सम्यक्त्व का चौथा आभूषण है-जिनशासन में कुशलता। व्यापार में जो मनुष्य कुशल, चतुर और चपल होगा तो वह आगे बढ़ जाता है। उसी प्रकार जिनशासन में कुशलता होनी चाहिए। व्यापारी स्वयं के माल को बेचने के लिए किस प्रकार की कुशलता से स्वयं के माल को दिखाता है। उसी प्रकार धर्म का भी ऐसी मधुरता से प्रदर्शन करना चाहिए कि सामने वाले व्यक्ति को ऐसा ही लगे कि अहो! ऐसा सुन्दर और ऐसा अद्भुत जैन धर्म है? नास्तिक को पाठ पढ़ाने वाला प्रधान
एक राजा था। उसके दरबार में नास्तिक और आस्तिक सभी आते थे। उनमें से किसी ने कहा - जैनों के साधुओं का कहना पड़ेगा कि वे संसार के विषयों से अलिप्त रहकर मन के योग द्वारा मुक्ति की साधना करते हैं । उसी समय सभा में से कोई नास्तिक सेठ कह बैठा - यह सम्भव ही नहीं है। ऐसे विषयों से क्या साधु अलिप्त रह सकता है? राजा भी विचार में पड़ गया। प्रधान आस्तिकवादी और चतुर था। इन दोनों के गले में यह बात उतर जाए इसीलिए उसने एक नाटक खेला। राजा के आदमी से दगा करवाकर राजा का कीमती हार चुरा लिया और वह हार उस सेठ