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________________ उपाध्याय - साधु- दर्शनपद १४९ गुरुवाणी - ३ की पुत्री साध्वी प्रियदर्शना भी भगवान् के पथ को छोड़कर कुछ समय के लिए अपने पति जमाली के पन्थ में मिल गई थी। जमाली कहता था कोई भी कार्य सम्पूर्ण होने पर, सम्पूर्ण हुआ कहना चाहिए। भगवान् का मत था - कार्य का प्रारम्भ हुआ तो कार्य किया कहा जा सकता है। प्रियदर्शना को भगवान् के मार्ग में स्थिर कुम्हार ने किया था। एक समय जब कुम्हार के वहाँ प्रियदर्शना ठहरी हुई थी । कुम्हार भगवान् का विशिष्ट भक्त था । उसने सोचा कि भगवान् की पुत्री होकर भी भगवान के पन्थ को छोड़ दे, यह कैसे चल सकता है। इसलिए साध्वी प्रियदर्शना को सच्चे मार्ग पर लाने के लिए जहाँ प्रियदर्शना बैठी हुई थी वहाँ बर्तन पकाने के भट्ठे से एक जलता हुआ अंगारा लेकर उसके साड़े पर फेंका। साड़े पर अंगारा गिरते ही वह साड़ा जलने लगा । प्रियदर्शना ने उसको बुझाया और कुम्हार से कहा कुम्हार ! जरा सावधानी से काम करो । देखो, मेरा साड़ा जल गया । कुम्हार ने उसी समय उत्तर दिया - तुम्हारे पति के मतानुसार तो वस्त्र सम्पूर्ण जल जाए तभी जल गया कह सकते हैं। भगवान के मतानुसार तो ठीक ही है क्योंकि थोड़ा सा जला तब भी जल गया कहा जाता है । तुम तो अपने पति के मत को मानती हो इसीलिये ऐसा बोलना युक्त नहीं है। यह सुनकर उसकी आँखें खुल गई और भगवान के मार्ग में आ गई। धर्म में स्थिर रहना यह समकित का पहला आभूषण है । - २. प्रभावना - मनुष्य के जीवन का प्रभाव पड़ना ही चाहिए । अहो ! यह मनुष्य कितना धर्मिष्ठ है ? धर्म के कारण ही इसका सारा जीवन बदल गया है! अहो, धर्म का कितना अचिन्त्य प्रभाव है । दान, शील, और तप से धर्म की प्रभावना करनी चाहिए। जबकि आज शासन की प्रभावना, खाने-पीने और बैण्ड-बाजे तक ही सीमित हो गई है । इस उत्सव में कैसे बैण्ड बज रहे थे? खाना अच्छा था या नहीं। यही सब देखते हैं, किन्तु धर्म की प्रभावना कैसी हुई, यह कोई भी नहीं देखता ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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