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उपाध्याय - साधु - दर्शनपद ____ गुरुवाणी-३ ही कचरा सब नीचे बैठ जाता है उसी प्रकार यहाँ भी सम्यक् दर्शन से आत्मा निर्मल बन जाती है। इसके तीन प्रकार हैं । या तो कचरा नीचे बैठ जाता है अर्थात् रागद्वेष उपशमित हो जाता है, उसे उपशम समकित कहते हैं। दूसरा क्षायोपशमिक समकित है। रागद्वेष रूपी कचरा नीचे बैठ जाने पर उसको हिलाया जाए तो कचरा जैसे डोलायमान होता है वैसे समकित भी डोलायमान हो जाता है। अर्थात् मिथ्यात्व का तनिक भी सम्पर्क होने पर मनुष्य का समकित डोल जाता है। समकित को स्थिर रखने के लिए सत्संग अत्यावश्यक है। अधिकांश रूप में व्यक्तियों को क्षायोपशमिक समकित ही होता है। यह समकित जीवन में असंख्य बार आता है। सत्संग होता है वहाँ तक वह स्थिर रहता है। मिथ्यात्वी होने में उसे तनिक भी समय नहीं लगता। आता है और चला जाता है। तीसरा क्षायिक समकित है। इसमें रागद्वेष रूपी कचरे का नितान्त ही अभाव है। यह समकित जीवन में एक बार ही आता है और आने के बाद कभी भी जाता नहीं है। रागद्वेष रूपी कचरा ही न हो तो वह डोलायमान कहाँ से होगा? समकित के आभूषण
सम्यक्त्व भी आभूषणों से युक्त होने पर शोभा देता है। उसके पाँच आभूषण महत्त्व के निम्नानुसार है। १. स्थैर्य - अर्थात् स्थिरता, २. प्रभावना, ३. प्रभुभक्ति, ४. जिनशासन में कुशलता, ५. तीर्थसेवा।
१. स्थिरता - भगवान का धर्म समझने के बाद उसमें स्थिरता होनी चाहिए। अधिकांशतः जगत् के जीव अस्थिर ही होते हैं । जहाँ किसी दूसरे का सम्पर्क होता है वहीं भागकर दौड़ जाते हैं। उसको ऐसा लगता है कि यह सच्चा है या वह सच्चा है.... शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे डांवाडोल मत बनो। एक ही भगवान के धर्म पर श्रद्धा रखो। आज तो अनेक सम्प्रदाय हैं, अनेक गच्छ हैं और अनेक मार्ग हैं । कितने ही लोग अस्थिरता के कारण सच्चे धर्म को छोड़कर जैसे-तैसे मार्ग पर चढ़ जाते हैं। सामान्य आदमियों की बात छोड़िए किन्तु स्वयं भगवान