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________________ १४७ गुरुवाणी-३ उपाध्याय - साधु - दर्शनपद खाने की इच्छा होगी क्या? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि श्रद्धा बिना सब व्यर्थ है । एक बार भी जिनेश्वर के तत्त्वों में रुचि पैदा हो गई और भले ही वह फिर, वापस चली जाए तब भी अर्द्धपुद्गल परावर्तन उसका संसार कम हो जाता है। रुचि अर्थात् बीज। बीज होगा तो वह वृक्ष बनेगा ही। काशी के पण्डितों ने जैन शास्त्रों का अभ्यास किया हो और दूसरे विद्यार्थियों को पढ़ाते भी हों, किन्तु वे पुस्तक में लिखा हुआ बोल जाते हैं । उनको वह ज्ञान तनिक भी स्पर्श नहीं करता है। पढ़-पढ़कर पण्डित हो जाने से हाथ में कुछ नहीं आता है। एक पण्डित के यहाँ मैं मिलने गया। उनकी अवस्था ८५ वर्ष की थी। जैन शास्त्रों के अभ्यासी विद्वान् थे, किन्तु अब वे निवृत्त हो गए थे। उनसे मैंने पूछा - अब क्या करते हो? पण्डित जी बोले - टी.वी. देखता हूँ, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता हूँ। पण्डितजी के मुख से यह सुनकर मुझे अत्यधिक आश्चर्य हुआ। उसी समय मेरे साथ में रहे हुए छोटे साधु ने पूछ ही लिया - भगवान का नाम तो लेते हो न? पण्डितजी ने उत्तर दिया - मैं तो नास्तिक हूँ। क्या कहना? सारी जिन्दगी जिन्होंने शास्त्र पढ़े और पढ़ाये, किन्तु जीवन में उस ज्ञान का तनिक भी स्पर्श नहीं हुआ। कड़छी (बड़ा चम्मच) के समान ही हुआ। खीर की कड़ाई में कड़छी घूमती रहती है, किन्तु उसे खीर का स्वाद मिल सकता है क्या? ऐसे सेवा निवृत्त मनुष्य भी सम्यक् दर्शन के बिना संसार से निवृत्त नहीं हो सकते। जब तक सम्यक् दर्शन प्राप्त न हो तब तक भव-भ्रमण चालू ही रहता है। चारित्र भी उच्च कोटि का क्यों न हो? किन्तु सम्यक्त्व के बिना उसका वास्तविक फल नहीं मिल सकता। समकित के भेद आत्मा में रागद्वेष का कचरा भरा हुआ है, उसमें जिनेश्वर भगवान की वाणी रूपी कतक चूर्ण का चूरा डाल दिया जाए तो सारा कचरा नीचे बैठ जाता है। जिस प्रकार चलायमान पानी में कतक चूर्ण का चूरा डालते
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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