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उपाध्याय - साधु - दर्शनपद
गुरुवाणी-३ बीज होता है और सीताफल का भी बीज होता है, यह तो समझ में आता है किन्तु बारह खड़ी के अक्षर भी मन्त्र बीज होते हैं इसको दिमाग स्वीकार नहीं करता। वह न्यायाधीश किसी योगी के पास गया और हृदय की शंका उसके सामने रख दी। योगी ने कहा - कल आना। योगी साधक था। दूसरे दिन उसने लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगवाया, और उसके सामने कुछ दूरी पर योगी तथा न्यायाधीश बैठे.... दूर बैठे हुए योगी ने 'र' बीज मन्त्र का उच्चारण किया। कुछ ही समय में लकड़ियों में से धुंआ निकलने लगा, घास गिरने लगी और आग भभक उठी। न्यायाधीश के मन की शंका दूर हुई। उसने प्रत्यक्ष में मन्त्राक्षर का प्रभाव देखा। 'गुरु' शब्द यह हमारे अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके ज्ञान रूपी प्रकाश फैलाता है। जगत् में देवतत्त्व की अपेक्षा भी गुरुतत्त्व महान् है । देव और धर्म की पहचान कराने वाला गुरु तत्त्व ही है। शास्त्रकार कहते हैं कि हमारी आत्मा शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्ध इन पांच इन्द्रियों के विषय में ही आकण्ठ डूबी हुई है। इनको ही पाँच-परमेष्ठि मानकर उनकी सेवा में रात-दिन लगी रहती है। संसार में भटकाने वाले इन पाँच परमेष्ठियों को जीतना हो तो अरिहंत आदि पांच परमेष्ठियों की उपासना करो। छट्ठा पद - नमो दंसणस्स
आठों पदों की उत्पत्ति सम्यक् दर्शन से ही होती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति न हो तो अरिहंत कैसे बन सकते हैं? चाहे जितना भी ज्ञानी हो या विद्वान हो किन्तु सम्यक्त्व के बिना वह निगोद में फेंका जाता है। ज्ञान भी प्रमाण भूत कब कहा जा सकता है? सम्यक् दर्शन होने पर ही। सम्यक् दर्शन क्या है? जिनेश्वर की वाणी और वचनों में रुचि अर्थात् श्रद्धा, उसका नाम ही सम्यक् दर्शन है। जहाँ रुचि होगी वहीं वीर्योल्लास प्रकट होगा। खाने में रुचि होगी, तभी खाने के लिए दिल होगा। जिसकी जैसी रुचि होती है वैसी ही उसकी दौड़ होती है। बहुत कुछ सुना किन्तु रुचि नहीं हो तो। थाली में घेवर परोसा गया हो किन्तु खाने में अरुचि हो तो