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गुरुवाणी-३ . उपाध्याय - साधु - दर्शनपद पानी तैयार है। यह सारा आगत-स्वागत किसके बल पर मिल रहा है! तुम अनजान गाँव में जाकर खड़े रहोगे तो तुम्हें कोई भी आदर सत्कार देगा क्या? कोई पानी के लिए भी पूछेगा? महावीर की चादर (वेश) सवा लाख की है। इसीलिए जो कुछ भी मान-सम्मान मिल रहा है वह मुझे नहीं बल्कि वेश को मिल रहा है, ऐसा मानकर मन में तनिक भी गर्वित नहीं होता है, उसी प्रकार कदाचित् किसी समय मान नहीं मिले.... तब भी हृदय में तनिक भी शोक धारण नहीं करता है। गाँव में ऐसा भव्य प्रवेशोत्सव हुआ और लोगों ने मुझे कोई भाव नहीं पूछा, ऐसा विचार कर मन में तनिक भी दीनता का अनुभव नहीं करता है, इसे कहते हैं साधु । जो ऐसा साधु न हो तो श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं - शुं मुंडे? शुं लोचे रे? सिर मुंडा लेने मात्र से कोई सफलता नहीं मिलने वाली है, किन्तु सच्चा साधु बनने के लिए मन को मुंडित करना होगा। गुरु - यह तत्त्व है
गुरु मांस का पिण्ड नहीं है अपितु तत्त्व है । गुरु शब्द यह मन्त्राक्षर है। 'गु' अक्षर अंधकार वाचक है और 'रु' अग्नि वाचक है। शास्त्रों में सभी अक्षरों को मन्त्राक्षर के रूप में प्रतिपादित किया गया है। शब्द यह सृष्टि का मूल है। शब्द के भीतर सारा विश्व आ जाता है। कोई अक्षर अग्नि का बीज है, तो कोई जल का बीज है और कोई वायु का बीज है। साधना करने की योग्यता/ज्ञान होना चाहिए। सबसे पहले उन-उन अक्षरों की साधना करनी होती है और फिर उसका जाप करते हुए अग्नि की आवश्यकता हो या न हो अग्नि यकायक प्रकट हो जाती है। जल के बीज की साधना करते हुए कुछ न हो फिर भी यकायक प्रवहमान जल निकल पड़ता है। शब्द का कभी भी नाश नहीं होता है, इसीलिए उसे 'अक्षर' कहते हैं अर्थात् जो 'क्षय' नहीं होता।
कलकत्ता का एक न्यायाधीश था। उसने यह बात सुनी की अक्षर यह बीज है। उसको लगा कि चीकू का तो बीज होता है, आम का भी