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उपाध्याय
गुरुवाणी - ३ कितना कठिन काम है । उपाध्याय भगवंत पत्थर जैसे शिष्यों में भी प्रेम
साधु - दर्शनपद
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ज्ञान को अंकुरित करते हैं । आज तुम्हें अपने लड़कों को पढ़ाने के लिए लाखों रुपये खर्च करने पढ़ते हैं किन्तु उपाध्याय महाराज तो दिन-रात पढ़ाते हैं परन्तु पारिश्रमिक के रूप में एक रुपया भी नहीं लेते । उपाध्याय अर्थात् जिनके चरणों में बैठकर पढ़ाई की जाए। उनका वर्ण हरा होता है । क्योंकि वे ज्ञान के अंकुरों का आर्विभाव करने वाले होते हैं । अंकुर रङ्ग हरा ही होता है न । हरे रङ्ग को देखकर मनुष्य को शान्ति मिलती है । चाहे जैसा भी जड़ शिष्य हो किन्तु उपाध्याय भगवंत की उपासना करने से ज्ञानी बन सकता है।
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पाँचवाँ पद नमो लोए सव्वसाहूणं
एक राज्य को चलाना हो तो राजा चाहिए, मन्त्री चाहिए, सेनापति चाहिए और सैनिक चाहिए। जबकि यहाँ तो पूर्ण शासन चलाने का है । उसमें क्या नहीं चाहिए ? अरिहंत परमात्मा का स्थान राजा के स्थान पर है, आचार्य भगवंत मन्त्री के स्थान पर है, उपाध्याय भगवंत सेनापति के स्थान पर है और साधुगण सैनिकों के स्थान पर हैं । उक्त सभी का आधार सैनिकों पर ही है। सेनापति चाहे जितना भी महारथी क्यों न हो किन्तु सैनिकों के बिना वह क्या कर सकता है? यह शासन साधु-साध्वियों के सैन्य समूह पर ही चलता है। देश-देश, गाँव-गाँव और घर-घर तक पहुँचने के कारण ही यह धर्म गाँव-गाँव में फैला हुआ है। प्रभु के शासन को फैलाने वाले साधु-साध्वी ही हैं। अरिहंत भगवान के शासन में साधुसाध्वियों का प्रबल सहयोग है। यह जगत सत्पुरुषों के पुण्य के आधार पर ही टिका हुआ है । जगत् में पाप बहुत ज्यादा बढ़ गया है, तब भी समुद्र अपनी मर्यादा क्यों नहीं छोड़ता ? क्योंकि वह विचारता है कि यदि मैं मर्यादा का त्याग कर दूंगा, तो इन सत्पुरुषों का क्या होगा? वे भी डूब जाएंगे । इसीलिए वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता । सारा जगत् जैन संघ से ही शोभायमान है। पारिश्रमिक लिए बिना घर - बार छोड़कर निकले हुए,