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उपाध्याय - साधु - दर्शनपद
आसोज सुदि ११
चौथा पद - नमो उवज्झायाणं
___नवपद के नौ पदों में अरिहंत और सिद्ध ये देव तत्त्व हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु ये गुरु तत्त्व हैं। देव तत्त्व तो अमुख समय में ही उत्पन्न होते हैं और कुछ समय तक ही रहते हैं । उस समय में जिन जीवों का उद्धार हुआ, वह हो गया किन्तु उनके बाद असंख्य जीवात्माओं का क्या होगा? गुरु तत्त्व के बल पर ही ये जीवात्माएं तिर सकती है। जिस प्रकार बिना माँ-बाप के लड़के का हित नहीं हो सकता उसी प्रकार गुरु तत्त्व के बिना जीवात्मा पार नहीं हो सकता। अस्वस्थ शरीर के उपचार के लिए डॉक्टर अथवा वैद्य की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार मन की व्याधि के उपचार के लिए गुरु की नितान्त आवश्यकता है। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा और असूया आदि मन की व्याधियाँ हैं। ये व्याधियाँ गुरु भगवन्त रूपी डॉक्टर के द्वारा ही दूर हो सकती है।
देश स्वतन्त्र हुआ और तुरन्त ही निर्वाचित बुद्धिशाली लोगों को इकट्ठे करके देश का संविधान बनाया। यहाँ भी तीर्थ की स्थापना के बाद तत्काल ही विधान बनाया गया। जिसे द्वादशांगी कहते हैं। भगवान ने तीन पद दिए - उप्पन्ने इ वा, धुवे इ वा, विगए इ वा। इन तीन पदों के आधार पर ही गणधर भगवन्तों ने द्वादशांगी की रचना की। विधान को सम्भालने एवं सुरक्षित रखने का काम उपाध्याय भगवन्तों ने किया। आचार्य महाराज भी यदि किसी प्रकार से इधर-उधर हों तो उपाध्याय भगवंत तत्काल ही उनको रोक सकते हैं। यहाँ तो सब-कुछ नियमानुसार चलता है, तुम्हारी इच्छानुसार नहीं। दूसरा पढ़ना और पढ़ाना यह काम उपाध्याय भगवन्तों का रहता है। पत्थर पर बीजों को अंकुरित करना