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तीसरा पद - आचार्यपद
गुरुवाणी-३ सिर्फ क्रियाकांड ही बन गई है। हम धर्म के सारे विधि-विधान तो करते रहते हैं। सामायिक अर्थात् दो घड़ी (४८ मिनट) तक इरियावहीयं कर कटासणे पर बैठ जाना। फिर भले ही मन में किसी भी प्रकार के विचारों का द्वन्द्व चलता हो। वास्तव में सामायिक अर्थात् समता की साधना, दूषित विचारों का त्याग, शुभ भावनाओं की प्रवृत्ति, सामायिक करने के बाद जीवन में कितनी समता आई? वाणी में समता नहीं, विचारों में समता नहीं। इधर-उधर के झगड़े विचारों में चलते रहते हैं। १०० सामायिक करने पर भी बिन्दु जितनी भी जीवन में समता नहीं आई तो सामायिक करने का कोई अर्थ नहीं है। उल्टा कर्मों का बंध ही होता है। श्रीपाल महाराजा को तो विवाह के लिए जाते समय भी सामायिक था। क्योंकि उनके चित्त में समता थी। धवल सेठ की दुर्जनता पराकाष्ठा पर पहुँची हुई थी तब भी उनकी तरफ उनका लेशमात्र भी द्वेष भाव नहीं था। श्रीपाल महाराजा की प्रत्येक क्रिया में सामायिक ही होती थी। भले ही वे कटासणा बिछाकर दो घड़ी भी बैठते नहीं थे, किन्तु उनका चित्त सामायिक में ही था। समता में ही रमण करते थे। इसीलिए धवल सेठ द्वारा समुद्र में गिरा देने पर भी सिद्धचक्र के प्रभाव से समुद्र को तैर कर वे किनारे आ गए थे। तब भी उनके हृदय में धवल सेठ के प्रति लेशमात्र भी द्वेष नहीं था। निश्चिन्त होकर वृक्ष के नीचे सो जाते हैं। नींद कब आएगी? मनुष्य निश्चिन्त होगा तभी न! दो-दो स्त्रियों और अखूट लक्ष्मी को समुद्र में छोड़कर आ गए थे, इसका भी लेशमात्र उनके हृदय में रञ्ज/ दुःख नहीं था। श्रीपाल रास से यही सार ग्रहण करने का है। आराधना के साथ क्रिया करेंगे तो उसका अलौकिक फल मिलेगा। आज तो बहुत से लोगों के जीवन में पूजा-दर्शन, सामायिक-प्रतिक्रमण यह सभी विधि मात्र ही हैं। ये साधना का रूप धारण नहीं कर सकी हैं। कई बार तो दीक्षा भी एक विधि बन जाती है। साधु-साध्वियों के जीवन में से भी यदि समता का लोप होने लगे तो संयम रूपी महल कैसे टिकेगा। किसी भी