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________________ १३९ गुरुवाणी-३ तीसरा पद - आचार्यपद आते हैं। आने वाले साधुगण सागरसूरि से पूछते हैं कि यहाँ कोई साधु महाराज आए हैं? हाँ, एक वृद्ध साधु आया है, यह कोई अन्य वृद्ध साधु नहीं किन्तु हम सबके गुरु होने चाहिए। वहाँ जाकर देखते हैं, गुरु महाराज के चरणों में गिर पड़ते हैं, माफी मांगते हैं। सागरसूरिजी महाराज तो यह दृश्य देखकर दंग रह जाते है.... अ र र.... मैंने ज्ञानी गुरु की भयंकर आशातना की है.... वे भी आचार्य भगवंत के चरणों में गिर पड़ते हैं । क्षमा मांगते हैं। आचार्य भगवंत कितने सरल हैं? कहते हैं - भाई! तुम्हारे पास ज्ञान बहुत है, प्रसिद्धि भी है, कुशलता भी है, किन्तु तुम्हारे में एक कमी है। तुम प्रज्ञा को पचा नहीं सकते। तुम्हें ज्ञान/प्रज्ञा का अजीर्ण हो गया है। ज्ञान यह अहंकार का नाश करने के लिए है जबकि वह तेरे अहंकार को बढ़ाने वाला बना है। आचार्य भगवंत ने प्रज्ञा को कितना पचाया था कि स्वयं के प्रशिष्य द्वारा किया हुआ अपमान भी सहन कर गये। ऐसे युगप्रधानों से ही यह शासन टिक रहा है। आचार्य पद की उपासना से हमारा अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। वे जाज्वल्यमान ज्योति के समान है। अतः भीतर के अंधकार को दूर करता है। इसके उपरान्त सिंह, व्याघ्र, सर्प जैसे भयंकर प्राणियों को भी स्तम्भित करने की शक्ति इस पद के जाप करने से पैदा होती है। धर्म केवल विधि बन गया पूज्य हीरसूरिजी महाराज के जीवन का प्रसंग है। साधुवृन्द के साथ विहार करते हुए वे जा रहे हैं। रास्ते में किसी साधु को सर्प ने काट लिया। वह एकदम चिल्ला उठा। सांप ने काटा....सांप ने काटा...। हीरसूरिजी महाराज उसके पास आए। जहाँ सांप ने काटा था वहाँ हाथ फेरा और कहा- चल खड़ा हो जा! और चलना प्रारम्भ कर.... उनके स्पर्श से जहर उतर गया। इन सभी साधनाओं के लिए आत्मा में गहराई से उतरना पडता है । १०८ बार नवकार की गणना कर ली और फल मिल जाएगा ऐसा नहीं है। इसमें तो तन्मय होना पड़ेगा। हमारी समस्त क्रियाएं
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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