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________________ १३८ तीसरा पद - आचार्यपद गुरुवाणी-३ महाराज नहीं आये। उन्होंने चारों तरफ खोज की। श्रावकों को पूछा, किन्तु उनका कहीं भी ठिकाना नहीं मिला। कालिकाचार्य वहाँ से निकलकर सुवर्णभूमि (सुमात्रा) जहाँ उनका प्रशिष्य विचरण करता था। वहाँ आ पहुँचे। उन दोनों ने आपस में किसी को देखा नहीं था। इसीलिए, पहचानते भी नहीं थे। इस तरफ शिष्यों ने श्रावकों को खूब आग्रह करके पूछा, तब श्रावकों ने कहा कि तुम्हारे क्लेश से कंटालकर गुरु महाराज चले गये है किन्तु कहाँ गए यह मालूम नहीं है। शिष्यों को लगा कि इससे तो हमारी बदनामी होगी। अतः चाहे जैसे भी गुरु महाराज को ढूंढ लेना चाहिए। उन्होंने वहाँ से विहार किया। __सुवर्ण भूमि में कालिकाचार्य को देखकर वहाँ विचरते इन्हीं के प्रशिष्य आदि साधुओं ने विचार किया कि कोई वृद्ध साधु आया है। इसी कारण उन्होंने उनका अधिक आगत-स्वागत भी नहीं किया और मानसम्मान भी नहीं दिया, किन्तु आचार्य तो धैर्य और गम्भीरता के भण्डार थे। एक तरफ कोने में बैठ जाते हैं। पूरे दिन अपनी साधना में मस्त रहते हैं। दूसरे साधु प्रतिदिन वाचना लेने के लिए बैठते हैं। उस समय यह कालिकाचार्य महाराज भी शिष्यों के पीछे एक तरफ बैठ जाते हैं। ज्ञान को कितना हजम किया होगा? वाचना सुनते हैं, वाचना देने वाले साधु आचार्य महाराज से पूछते हैं - क्यों महाराज मैं बराबर वाचना देता हूँ न ! आचार्य भगवंत उत्तर में कहते हैं- हाँ भाई! बराबर है। इससे अधिक कुछ भी नहीं बोलते हैं। चुपचाप सबकुछ देखा करते हैं। स्वयं की साधनाआराधना में ही मस्त रहते हैं। ___ इस ओर उनके शिष्य उनकी शोध करते-करते उस तरफ आ जाते हैं। यहाँ विराजमान सागरसूरिजी महाराज को खबर मिलती है कि कोई साधुओं का संघ भारत से आ रहा है। इसी गाँव में पहुँच गये हैं। यहाँ रहे हुए समस्त साधु उनकी अगवानी के लिए सामने जाते हैं। आचार्य महाराज तो एक कोने में ही बैठे हुए हैं। सब साधु मिलकर उस स्थान पर
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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