SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३७ गुरुवाणी-३ तीसरा पद - आचार्यपद उन्होंने देखा कि गुरुमहाराज दुविधा में हैं। उनके चेहरे पर उद्विग्नता छा रही है। उन्होंने आस-पास दृष्टि डाली। देवियों को कन्धे पर बैठी हुई देखकर वे समझ गये.... गुरु के प्रति भी कितना अधिक सम्मान? गुरुजी जो विचार करते हैं वह सत्य ही है। तत्काल ही गुरुदेव के पास जाकर उनके चरणों में गिर पड़े और कहा - हे गुरुदेव! यावज्जीव छः (रस) विगईयों का त्याग करवाईए। पूर्ण युवावस्था....! छः विगइयों का त्याग....! शासन के प्रति कितनी भक्ति.... कितना गुरु के प्रति प्रेम! गुरुदेव ने उनकी तेजस्विता देखी। छहों विगईयों का प्रत्याख्यान करवाया और फिर पदवी की क्रिया प्रारम्भ करवाई। ऐसे गुण हों तभी आचार्य बनने के लिए समर्थ हो सकते हैं। कोई पदवी की मुद्रा लगानी नहीं है बहुत बड़ी जवाबदारी सिर पर आ जाती है। __ आचार्य भगवंत भी प्रज्ञा को किस प्रकार हजम करते हैं, इसका हूबहू चित्र का वर्णन करने वाला यह दृष्टान्त है। बुद्धि को पचाना यह एक बड़ा परिषह है। कालिकाचार्य उज्जयिनी नगरी में कालिकाचार्य विचरण करते थे। वे महाज्ञानी थे। अप्रमत्त थे, किन्तु उनके शिष्य बहुत ही प्रमादी और जड़ थे। शिष्यों को कुछ भी कहें तब भी वे शिष्य मानते नहीं थे। इसी कारण आचार्य महाराज को क्रोध आ जाता था। बहुत समय तक यह क्रम चला, अन्त में उन्होंने सोचा कि ऐसे तो मेरा सबकुछ बिगड़ जाएगा। ये शिष्य तनिक भी सुधरते नहीं हैं । अतः एक अग्रगण्य श्रावक से बात की। मैं इन सब शिष्यों से अत्यन्त दु:खी हो गया हूँ अतः एकाकी ही कहीं जाने की इच्छा रखता हूँ.... कर्म सत्ता किसी को भी छोड़ती नहीं है। ऐसे युगप्रधान आचार्य को भी एकाकी रहने का अवसर आया! किसी भी शिष्य को कहे बिना ही अकेले निकल पड़े। प्रात:काल हुआ.... शिष्यों ने राह देखी कि अभी गुरु महाराज आ जाएंगे, किन्तु दिन पर दिन बीतते गए तब भी गुरु
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy