________________
गुरुवाणी-३
१३५
तीसरा पद - आचार्यपद जगत् का अधिकांश भाग दुर्जनों से भरा हुआ है। शास्त्रकार कहते हैं कि दुर्जनों की उपेक्षा कर और उनकी तरफ सहानुभूति जताकर सज्जन को उच्च स्थान प्राप्त करना है। एक सुवाक्य है - दुर्जनं प्रथमं वन्दे सजनं तदनन्तरम्।अर्थात् मैं पहले दुर्जन को नमस्कार करता हूँ और उसके बाद सज्जन को नमस्कार करता हूँ। क्योंकि दुर्जन होंगे तभी सजन का महत्व समझ सकते हैं। पीतल होगा तब ही स्वर्ण की कीमत आंक सकते हैं। काँच के टुकड़े होंगे तभी हीरे का मूल्य समझ सकते हैं। वैसे ही जो जगत् में दुर्जन न हों तो सज्जन मनुष्य के महत्व को भी नहीं आंका जा सकता। शासन का दीपक
भगवान् महावीर तो इस पृथ्वी पर उपदेश देने के लिए केवल तीस वर्ष ही रहे। अल्प काल में ही सूर्य प्रकाश कर गया। किन्तु उनके बाद ज्योति के समान जाज्वल्यमान आचार्य भगवंत नहीं होते तो अंधेरा ही होता न! आज हजारों वर्ष बीत जीने पर भी हमारे तक यह शासन पहुँचा, यह किसके बल पर? आचार्य भगवंतो के कारण ही न! अरिहंत पद की अपेक्षा भी कभी-कभी आचार्य पद कठिन बन जाता है। कारण कि अरिहंत भगवान के पास तो अतिशय होता है और उन अतिशयों के बल पर कार्य को पूर्ण कर देते हैं। जबकि आचार्य भगवंतो को तो अतिशयों के बिना ही काम लेना पड़ता है। शासन में अनेक प्रकार के जीव होते हैं। ऊँचे कक्षा के भी होते हैं, मध्यम कक्षा के भी होते हैं और निम्न कक्षा के भी होते हैं। ऐसा होने पर भी सबको उन-उन की योग्यता के अनुसार सम्भालना स्वयं पञ्चाचार का पालन करना और दूसरों के पास से पालन करवाना। आज के नेतागण तो स्वयं कुछ करते नहीं और प्रजा को आदेश देते हैं।प्रजा को कहते हैं कि आवश्यकता से अधिक खर्च न करो.... गरीबी हटाओ.... किन्तु स्वयं तो छाछ पीने के लिए भी प्लेन में जाते हैं.... और पैरों को दबवाने के लिए भी प्लेन में उड़ते हैं। यहाँ तो पहले पालन करो और बाद में पालन करवाओ। आचार्य महाराज गम्भीर