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तीसरा पद - आचार्यपद
आसोज सुदि १०
सिद्धचक्र में गुणों और तमाम गुणवानों का समावेश हो जाता है। पिता को पुत्र को तैयार करने की, आगे लाने की कितनी आतुरता रहती है? शिल्पी को पत्थर में से मूर्ति बनाने की कितनी आतुरता रहती है। मन में निरन्तर एक ही चिन्तन चलता रहता है कि मुझे यह करना है। और इस चिन्तन की प्रतिध्वनि भी पड़ती है। जिस प्रकार हमारे मन में किसी प्रकार का संकल्प करते हैं तो उसकी प्रतिध्वनि पड़ती ही है। महापुरुषों . ने संकल्प किया है कि जगत् के समग्र जीवों को मुझे तारना है। हमें इस संकल्प के अनुकूल बनने का है। शिल्पी चाहे जैसा भी हो किन्तु पत्थर इतना कठोर हो कि वह टांकने को ही तोड़ देता हो। तो इसमें शिल्पी का कोई दोष नहीं है। किसी चित्रकार ने चित्र को लम्बे समय तक स्थाई बनाने के लिए सुन्दर कैनवास के कपड़े पर चित्र बनाना प्रारम्भ किया। यदि पवन के जोर से कपड़ा उड़ता रहे तो चित्रकार उस चित्र को बना सकता है क्या? नहीं, अरिहंत परमात्मा का संकल्प है कि 'सवि जीव करूं शासन रसी' किन्तु यदि जीव की योग्यता ही न हो तो। हमें उपासना के द्वारा/गुणों के द्वारा योग्यता प्राप्त करनी है। हम योग्य बनेंगे तभी साधना कर सकेंगे। पहले तो जीवन में सज्जनता की आराधना/ साधना करने की है। श्रीपाल महाराजा के गुणों का गायन शासनाधिपति गौतमस्वामीजी महाराज भी करते हैं। किसलिए? उनके जीवन में सज्जनता शिखर पर थी। उनके रास में से केवल कथानक ही नहीं पकड़ने का है किन्तु श्रीपाल के जीवन में रहे हुए गुणों को प्राप्त करने का है। धवल सेठ की दुर्जनता भी शिखर पर थी.... ऐसा होने पर भी सहानुभूति से और कृतज्ञता के गुण के बल पर अधम में अधम कोटि की दुर्जनता करने पर भी उसमें उपकारी के दर्शन करते हैं, कितना विशाल हृदय? प्रायः करके