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वीतराग की वाणी और दर्शन
गुरुवाणी - ३ उसने जंगल में जाने की मांग चालु रखी। अन्त में राजा ने उसको जाने की अनुमति दे दी। वह जंगल में जाकर अपने साथियों से मिलता है। साथी पूछते हैं कि तूने वहाँ क्या देखा? क्या खाया? जंगल में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं थी कि जिसके साथ इसने जो देखा और खाया उसकी तुलना कर सके....! राजा के वहाँ भोगे हुए सुख को वह अपने शब्दों में वर्णन कर सके ऐसा नहीं था.... सिद्ध का सुख भी ऐसा ही है । इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनके पास में स्वद्रव्य है, स्वक्षेत्र है और स्वकाल है । हमारे पास इनमें से कुछ भी नहीं है । हम परद्रव्यों के आधार पर ही मजबूत है। मोटर, बंगला, वैभव.... यह सब परद्रव्य है। आत्मा के गुण तो स्वयं के होते हैं । सिद्ध कालातीत कहलाते हैं । जहाँ राज-परम्परा के राजागण और वंश-परम्पराएँ नष्ट हो जाती हैं । जहाँ स्थल वहाँ जल और जहाँ जल वहाँ स्थल हो जाते हैं। सभी काल से घिरे हुए रहते हैं। जबकि सिद्ध भगवान अकाल है। जैसे कोई अल्ला बोले, कोई स्वामीनारायण, कोई हर-हर महादेव वैसे ही एक ऐसा भी पंथ है जो " सत् श्री अकाल " ऐसा बोलता है। यह सब परम तत्त्व के ही रूप है। अरिहंत परमात्मा के लिये जो यह मंथन है, परिश्रम है, वह सब परम तत्त्व तक हमको पहुँचाने के लिए है। सुख की व्याख्या
अनेक व्यक्तियों के हृदय में यह प्रश्न उठता है कि सिद्धपद में खाने का नहीं है, पीने का नहीं है, सोने का नहीं है और न ही किसी प्रकार की विरह-वेदना है, तो फिर आनन्द कैसा । हम लोग सुख की व्याख्या बहुत संक्षेप में करते है । घर में गाड़ियाँ हो, आलीशान बंगला हो, सुख के सब साधन मौजूद हों इसे हम सुख कहते हैं.... वास्तव में यह सच्चा सुख नहीं है, किन्तु सुखाभास है । संसार के सुखों में वेदना का अभाव होता है। जब चढ़ता बुखार हो .... १०६ डिग्री तक पहुँच जाए तब मनुष्य कितना अधीर और व्यथित हो जाता है किन्तु दवा से धीमे-धीमे बुखार उतरता हुआ १०५ डिग्री पर आता है । चढ़ते हुए १०५ डिग्री से ऊपर चढ़ता है, उस समय क्या स्थिति थी? और उतरते समय १०५ डिग्री आती है तब