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गुरुवाणी-३
वीतराग की वाणी और दर्शन भगवन्त का हमारे ऊपर अनन्य उपकार है। जिसके सब कार्य सिद्ध हो गए हो उसे सिद्ध कहते हैं । सिद्ध के सुख की तुलना करने लायक तो कोई भी पदार्थ इस जगत में नहीं है। उनका सुख अवर्णनीय होता है। एक दृष्टान्त आता है। सिद्ध का सुख कैसा?
___ किसी एक नगर में एक राजा था। उसके पास विपरीत शिक्षा वाला एक घोड़ा था। एक बार राजा उस घोड़े पर सवार होकर घूमने निकला। यह घोड़ा विपरीत शिक्षा वाला है इसका ज्ञान उस राजा को नहीं था। इस कारण वह घोड़े की लगाम को ज्यों-ज्यों खेंचता त्यों-त्यों घोड़े का वेग बढ़ता जाता। घोड़ा खड़े रहने के स्थान पर भागता। जंगल की तरफ दौड़ा। राजा थक गया। उसने लगाम को छोड़ दिया.... लगाम ढीली होते ही घोड़े का वेग घटता गया और घोड़ा खड़ा रहा। राजा ने जान लिया कि यह तो विपरीत ज्ञान वाला घोड़ा है। भयंकर जंगल में राजा इधर-उधर भटक रहा है। कुछ दूरी पर उसे झोपड़ियाँ दिखाई दी। राजा उस तरफ चला, भूख-प्यास से बेहाल हो रहा था.... झोपड़े में से एक पुरुष बाहर निकला। उसने राजा को सम्मान दिया, भोजन पानी से राजा की सेवा की। राजा बहुत खुश हुआ, और उस पुरुष को साथ लेकर स्वयं के नगर की ओर वापस चला। उस जंगली पुरुष ने कभी भी नगर नहीं देखा था। ऐसे सभ्य मनुष्यों और ऊँची हवेलियों को उसने जिन्दगी में पहली बार देखा। राजा ने उसको अपने महल के पास में ही ठहराया। कुछ दिवस तो उसने अपने को राजा का मेहमान माना। ऐसे सुन्दर भोजन उसने कभी नहीं किए थे। राजा के यहाँ किस बात की कमी हो सकती है....? और यह तो राजा का उपकारी है.... इसीलिए उसकी देखभाल विशिष्ट प्रकार से होती है। किन्तु, जंगल के मुक्त वातावरण में रहे हुए मनुष्य को महल भी जेल के समान लगने लगा। वापस जंगल में जाने के लिए राजा से वह आज्ञा मांगता है। राजा उसे अनेक प्रकार से समझाते हैं। ऐसा सुख और वैभव छोड़कर तूं जंगल में जाकर क्या करेगा? तब भी