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वीतराग की वाणी और दर्शन गुरुवाणी-३ हमारी कालिमा दूर होती है। चित्त की उज्ज्वलता से एक भी दूषित विचार आता है तो तुरन्त ही हमारा ध्यान उस ओर केन्द्रित हो जाता है। जैसे सफेद कपड़े पर लगा हुआ काला धब्बा तुरन्त ही दिखाई देता है न! जिन के ध्यान से जिन
ऐसे अरिहंत परमात्मा की सच्ची पहचान तभी होती है जब दूसरी ओर भटकता हुआ चित्त प्रभु के ध्यान में लीन होता है.... हम माला फेरते हैं, पूजा करते हैं, किन्तु चित्त उसमें मग्न नहीं होता है। क्योंकि चित्त में पदार्थों का समूह भरा हुआ होता है। जब भ्रमर-इलिका के न्याय से प्रभु में तन्मय बनेगें तभी उसका वास्तविक आनन्द और सच्चा स्वाद मिलेगा। इलिका भ्रमरी के डंक से बहुत भयभीत रहती है। वह भय ही भय में भ्रमरी बन जाती है। क्योंकि निरन्तर उसका ध्यान भ्रमरी की ओर रहता है। इस भय से भ्रमरी में मग्न होने के कारण इलिका भी भ्रमरी स्वरूप बन जाती है। इसी प्रकार दिन-रात अरिहंत का ध्यान करोगे तो अरिहंत के स्वरूप को धारण कर सकोगे।
अरिहंत के भजन से अनादि काल से जो हमारी कुटेव पड़ी हुई है वह नष्ट हो जाएगी। किन्तु वास्तविक रूप से हम भगवान का स्मरण करते ही नहीं हैं! करते हैं तो भोगवान का भजन करते हैं। अरिहंत बनना बहुत कठिन है, किन्तु अरिहंत का नाम लेना तो कठिन नहीं है न! सिद्धपद
___ अरिहंत भगवान किसलिए उपदेश देते हैं? धन पैदा करने के लिए नहीं, सिद्धपद प्राप्त करने के लिए देते है। सिद्धपद की पहचान कराने वाले तो अरिहंत ही है। एक आत्मा मोक्ष में जाती है, सिद्ध होती है, तो एक जीव निगोद में से बाहर आता है। निगोद में अनन्त जीवों का पिण्ड है। उसी में वे जन्म ग्रहण करते हैं और उसी में मरते हैं। अनादि काल से यह चक्र चलता रहता है। एक आत्मा के सिद्ध होने पर इन अनन्त जीवों के समूह में से एक जीव बाहर निकलता है। इस प्रकार सिद्ध