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गुरुवाणी-३ वीतराग की वाणी और दर्शन
१२९ दर्शन की तन्मयता - (वृद्धा माँ की कथा)
एक आश्रय-रहित वृद्धा माँ जंगल में लकड़ी लेने के लिए गई थी। वहाँ रास्ते में लोगों का झुंड का झुंड सामने मिलता है। वह जनता को पूछती है कि आज सब लोग कहाँ जा रहे हैं? लोग कहते हैं कि यहां तीर्थंकर पधारे हैं उनके दर्शन करने के लिए जा रहे हैं। तीर्थंकर अर्थात् क्या? लोग कहते हैं - अरे, जिनका नाम ग्रहण करने मात्र से हमारे दुःख
और दरिद्रता चली जाती है। वृद्धा को भी भगवान् के दर्शन की अभिलाषा होती है। मन में एक ही ध्यान है कि मुझे भगवान् के दर्शन करने हैं । दर्शन करने के लिए जाते हुए मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो जाती है। दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा होने के कारण वह मरकर देवलोक में जाती है। वहाँ से च्युत होकर किसी राजा के यहाँ कुमार के रूप में जन्म लेती है। एक भव देव का और एक भव राजा का । इस प्रकार सात भव करने के पश्चात् आठवें भव में राजा बनती है। वह राजा किसी बगीचे में बैठकर वहाँ के दृश्य देखता है। एक मेंढ़क को सांप ने पकड़ लिया, उसको शमी नाम के पक्षी ने पकड़ लिया, शमी पक्षी को अजगर ने पकड़ रखा है। इस प्रकार मत्स्यगलागल न्याय के समान संसार में भी ऐसा ही चलता है। बड़ा छोटे को दबाता है, उससे बड़ा उस बड़े को दबाता है.... इस प्रकार यह भयंकर संसार चल रहा है। यह दृश्य देखते ही उसे तत्काल ही वैराग्य उत्पन्न होता है और वह संयम ग्रहण करता है, अन्त में मोक्ष में जाता है। विचार करो भगवान् के दर्शन मात्र की अभिलाषा भी कितनी सहजता से मोक्ष को प्रदान करती है।
अरिहंत परमात्मा की उपासना श्वेत वर्ण से करनी होती है। कारण कि उनका वर्ण श्वेत है। निर्मल श्वेत रङ्ग की उपासना हमको भी श्वेत बनाती है। हम अन्दर से काले हैं, चितकबरे हैं। कितने ही दुर्गणों से भरे हुए हैं। सफेद रंग में शुद्धि करने की शक्ति है। अरिहंत परमात्मा का ज्यों-ज्यों ध्यान करते हैं त्यों-त्यों हमारे भीतर तेज और उज्ज्वलता बढ़ती जाती है।