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१२८ वीतराग की वाणी और दर्शन
गुरुवाणी-३ को कहता है - पिताजी ! यह पत्थर की मूर्ति के दर्शन करने से क्या जन्म सफल हो जाएगा? मुझे तो समय नहीं है। पिता को ये कठोर शब्द वज्र के समान लगते थे, पर क्या करे ! वात्सल्य है न! पुत्र का भावी जन्म बिगड़ न जाए ऐसा उस पिता को कुछ करना था। पुत्र का यह जन्म तो सुधारना ही था साथ ही परलोक भी सुधारना था। आज तुम्हें तुम्हारे सन्तान के परलोक की तनिक भी चिन्ता है....! ट्यूशन पर नहीं जाए तो उसे जबरदस्ती भेजते हैं किन्तु पाठशाला नहीं जाए तो कुछ नहीं कहते हैं। पिता पुराने जमाने के अनुभवी थे। उन्होंने एक युक्ति का प्रयोग किया। घर का दरवाजा छोटा बनवाया और दरवाजे के ऊपर/बारसाख पर भगवान की छोटी से मूर्ति बनवाई.... घर के दरवाजे में प्रतिदिन दस बार प्रवेश करने का होता है। जब-जब पुत्र द्वार के भीतर प्रवेश करता है तबतब उस मूर्ति पर नजर नहीं डालने पर भी दृष्टि पड़ ही जाती है। दरवाजा नीचा है इसीलिए झुककर जाना पड़ता है। जिस वस्तु को हम देखना नहीं चाहते उस वस्तु पर बारम्बार दृष्टि पड़ती है। वर्षों बीत गए। पिता स्वर्गवासी हो गए और पुत्र भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। पुत्र मरकर समुद्र में बड़े मच्छे के रूप में उत्पन्न हुआ। कहते हैं कि समुद्र में सभी आकार प्रकार के मत्स्य होते हैं.... प्रतिमा के आकार के भी होते हैं.... अनायास ही मनरहित किए हुए भगवान के दर्शन भी इस मत्स्य के जीवन में परिवर्तन कर जाते हैं। वह मत्स्य बारम्बार उस प्रतिमा के आकार के मत्स्य की ओर देखा करता है। ऐसा मैंने कहीं देखा है.... विचार करते-करते उसे उसी अवस्था में जातिस्मरण ज्ञान होता है। पूर्व जन्म देखता है। दुःख है कि मैंने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया....
और जिनेश्वर देव की कि हुई आशातना का प्रत्यक्ष फल अनुभव कर रहा हूँ। बहुत पश्चाताप करता है। मत्स्य के भव में भी वह तप-त्याग करता है। अन्त में अनशन करके स्वर्ग में जाता है। भाव रहित दर्शन भी यदि मनुष्य को पार लगा देते हैं तो भाव से करे हुए दर्शन मनुष्य को क्या नहीं प्रदान करते? अरे, दर्शन तो देती ही है, किन्तु दर्शन की मात्र अभिलाषा भी सद्गति को देती है।