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गुरुवाणी-३ वीतराग की वाणी और दर्शन थी, परन्तु उदरपूर्ति हेतु बेचारी वृद्धा वापस वन में जाती है। जैसे-तैसे करके लकड़ियाँ काटकर बोझ उठाकर वापिस फिरती है। त्यों ही रास्तें में उसके कानों में भगवान् की वाणी का सुमधुर स्वर सुनाई देता है। वाणी में इतनी अधिक शीतलता और मधुरता होती है कि वृद्धा वहीं की वहीं खड़ी रह जाती है। भूख और प्यास की वेदना तथा बोझ को भूल जाती है। शास्त्रकार कहते हैं कि वैसे तो भगवान् की देशना एक प्रहर तक चलती है किन्तु वह देशना छ: महीने तक भी चलती रहे तब भी वह वृद्धा इस दशा में एक भी कदम आगे नहीं रख सकती। ऐसी अपूर्व शक्ति महावीर की वाणी में है कि, पापी से पापी व्यक्ति को भी वह क्षण भर में तार देती है। चक्रवर्ती को भी क्षण भर में रङ्ग देती है। ऐसी अपूर्व शक्ति कहाँ से आती है? हृदय में रही हुई परकल्याण की भावना में से ही.... और भगवान् सर्वाभिमुख है। इस कारण सब जीवों को ऐसा लगता है कि भगवान् मेरे साथ ही बात कर रहे हैं। मुझे ही लक्ष्य करके कह रहे हैं। हम सर्वविमुख हैं अथवा स्वाभिमुख हैं इसीलिए हमारी वाणी से कोई प्रभावित नहीं होता। पूर्ण रूप से सर्वाभिमुख न बन सके तो कोई बात नहीं किन्तु हमारे सम्पर्क में आने वाले का तो कल्याण करना ही चाहिए, किन्तु विपरीत गुणों के कारण ही हमारी वाणी मानव हृदय में प्रवेश नहीं करती है। वापिस लौट आती है। जबकि भगवान की वाणी आर-पार उतर जाती है, हृदयंगम हो जाती है। दर्शन की अपूर्व शक्ति - (पिता-पुत्र की कथा)
भगवान् की वाणी की और उनके नाम की अपूर्व शक्ति हमने देखी है। अब भगवान् के दर्शन में कितनी शक्ति है, यह देखते है। बिना मन के किया हुआ भगवान् का दर्शन भी निष्फल नहीं जाता है। पितापुत्र थे। पिता धर्म में श्रद्धा रखने वाला था किन्तु पुत्र नास्तिक था। पिता रोज पुत्र को कहता - पुत्र, भगवान के दर्शन किया कर.... तेरा जन्म सफल हो जाएगा। किन्तु वह लड़का तो आज के कलयुग का था। पिता