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________________ १२४ अरिहंत का नाम गुरुवाणी-३ निष्ठापूर्वक किया हुआ प्रभु का नाम स्मरण कैसे नहीं तारेगा? मराठी में एक भजन है - जेथे मी जासी तेथे तुं माझा सांगाथी। अर्थात् मैं जहाँ जाऊँ वहाँ तुम मेरे साथ रहना। भगवान को हम साथी की तरह मानें यही जीवन की बड़ी सिद्धि है। भगवान् जैसे भगवान् अपने साथी हों तो दूसरे किसी की भी आवश्यकता क्यों हो? पुण्य को साथी मानते हुए परमात्मा को भी साथी मानो। भगवान् को साथी मानने से बहुत से बुरे काम अपने आप ही रुक जाते हैं। मन्दिर में जाते हैं तो किसी भी प्रकार का दूषित विचार आने पर तत्काल ही मन के भीतर आवाज उठती है - भगवान् तेरा साथी है। भगवान साथ हो तो बुरे विचार कैसे कर सकते हैं? दूषित विचारों से पुण्य भी पाप में बदल जाता है। भगवान का नामस्मरण परलोक में सद्गति प्रदान करता है और इस लोक में यह सारा जगत् जिसके पीछे पागल हुआ है, वह अर्थ और काम की भी प्राप्ति करा देता है। इस सड़क पर हजारों गाड़ियाँ दौड़ रही है और हजारों मनुष्य दौड़ रहे है, क्या ये भगवान् को प्राप्त करने के लिए दौड़ रहे है? नहीं, अर्थ के लिए ही दौड़ते हैं न! भगवान् के नाम का जाप करने से तुम्हारी तिजोरी में धन आ जाएगा ऐसा मैं नहीं कहता, किन्तु सम्पत्ति और समृद्धि सहजता से प्राप्त हो जाती है। जब भगवान् के नाम का जीवन में स्वाद लगेगा तब सारे रस और स्वाद को भूल जाओगे। फिर भोजन करते-करते भोजन का ठिकाना हो या नहीं तो भी खबर नहीं पड़ती। नमक डाला है या बिना नमक का है? उसकी भी खबर नहीं पड़ती। व्यथा किस-किस की हमें धन की व्यथा, परिवार की व्यथा और प्रतिष्ठा की व्यथा आदि व्यथाओं से हम घिरे हुए हैं किन्तु प्रभु नहीं मिले इसकी भी कभी व्यथा होती है? चौबीस घण्टे में प्रभु का भजन क्षण मात्र भी नहीं होता। भजन के बिना जीवन व्यर्थ जा रहा है। कभी ऐसा हृदय में खटकता है क्या? अनेक जन्मों में अनेक वस्तुएं मिलेगी किन्तु प्रभु नहीं मिलेंगे। जब
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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